सरना कोड पर क्यों बंटे हैं RSS और BJP?
झारखंड विधानसभा चुनाव में आदिवासियों से जुड़े मुद्दे शीर्ष पर हैं तो इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं। राज्य की 26.02% आबादी जनजातियों की है और 28 सीटें उनके लिए आरक्षित हैं। इनमें से 19 सीटों पर झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) ने पिछले चुनावों में जीत हासिल की थी। कांग्रेस के साथ मिलकर यह आंकड़ा हो गया था 26, BJP को केवल दो सीटों पर जीत मिली थी। साफ है, कोई भी पार्टी आदिवासियों के मुद्दों को नजरअंदाज नहीं कर सकती।
सरना कोड यानी सरना विधि संहिता को लेकर राज्य में लंबे समय से विवाद चल रहा है। सरना को अलग धर्म की मान्यता देने और सरना कोड लागू करने की मांग हर चुनाव में उठती रही है। इस बार चुनाव के दौरान ही गोमिया के ललपनिया स्थित लुगुबुरु घंटाबाड़ी धोरोमगाढ़ में 24वां अंतरराष्ट्रीय सरना धर्म महासम्मेलन होना है। इससे भी मामला गर्म है। इस महासम्मेलन में राज्य और देश के तमाम हिस्सों के अलावा नेपाल, बांग्लादेश और भूटान से भी श्रद्धालु पहुंचते हैं।
कांग्रेस-JMM ने अपने चुनावी घोषणापत्र में सरना धर्मकोड लागू करने का वादा किया है। वहीं, BJP ने कॉमन सिविल कोड से आदिवासियों को बाहर रखने की घोषणा की है। हालांकि सोरेन सरकार ने सरना को धर्म मानने का प्रस्ताव पहले ही विधानसभा में पारित कर दिया था। तब BJP इसके पक्ष में नहीं थी, लेकिन अब के बयानों से साफ है कि वह भी सरना धर्मकोड लागू करने के पक्ष में है।
संघ का रुख
BJP का मौजूदा रुख राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके खुद के पहले के स्टैंड से अलग है। संघ और उससे जुड़े वनवासी कल्याण आश्रम, जनजाति सुरक्षा मंच, विश्व हिंदू परिषद, धर्म जागरण मंच – सभी का कहना रहा है कि आदिवासी चाहे किसी भी समूह के हों, उनकी जाति जो भी हो, वे सभी हिंदू धर्म के ही अंग हैं। सरना अलग धर्म नहीं हो सकता। यह एक पूजा पद्धति है, जो उनकी संस्कृति से जुड़ी है। आज भी इन संगठनों से बात करने पर सीधा उत्तर यही मिलता है कि सरना एक पंथ और संप्रदाय हो सकता है, लेकिन उसे धर्म की मान्यता दे दी तो मूल हिंदू समाज से आदिवासियों को अलग करने का लंबा षड्यंत्र सफल हो जाएगा। केवल संघ ही नहीं, आदिवासियों से जुड़े मुद्दों पर काम करने वाले तमाम लोग और खुद आदिवासियों का एक बड़ा तबका भी सरना को अलग धर्म मानने के पक्ष में नहीं रहा है। इनका मानना है कि हिंदू धर्म से अलग होने का भाव उनके भीतर अंग्रेजों ने पैदा किया।
आदिवासियों के लिए यह अपनी सभ्यता, संस्कृति और परंपरा का विषय है। प्रत्यक्ष तौर पर सरना झारखंड, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़, बिहार और ओडिशा के छोटा नागपुर क्षेत्र के आदिवासियों का एक पारंपरिक पूजा स्थल है। ग्रामवासी अपने उत्सवों में यहां जुटते हैं, अनुष्ठान करते हैं। मान्यता है कि सरना ग्राम देवता का निवास स्थान है। छोटा नागपुर में गांव के पुजारी को मुंडा और आदिवासियों में पाहान कहते हैं। सहायक पुजारी को देउरी कहा जाता है। पाहान और देउरी जानवरों की बलि देते हैं। स्थानीय आदिवासी इस पवित्र सरना स्थल को जाहेर या जाहिरा या जाहेरथान या जाहिराथान भी कहते हैं। यहां ग्राम देवता, जाहेर बुढ़ी, सिंग बोंगा, बुरु बोंगा आदि की पूजा की जाती है। सिंह बोंगा सूर्य का पर्यायवाची नाम दिखता है।
परंपरा, संस्कृति, सभ्यता के मामले में विविधताओं से परिपूर्ण इस देश में अलग-अलग नाम और तरीकों से ऐसे उत्सव व उपासना जगह-जगह होते हैं, जिनके बीच भारी समानता है। अंग्रेजों ने समाज को बांटने के लिए भारत को बहुधर्मी देश घोषित किया। ईसाई मिशनरियों ने आदिवासियों के बीच इस भाव को बढ़ाकर उनका धर्म परिवर्तन कराया।
भारतीय अर्थों में धर्म कभी religion का पर्याय नहीं हो सकता। अंग्रेजी शब्द के हिसाब से देखने निकलें तो भारत में इतने ज्यादा पंथ, संप्रदाय, पूजा पद्धतियां और भाषाएं हैं कि हर जिले में कई-कई धर्मों को मान्यता देनी पड़ जाएगी। जिस सरना धर्म महासम्मेलन की हमने चर्चा की, उसका आयोजन सोहराय कुनामी दिवस पर है, जो वास्तव में कार्तिक पूर्णिमा का ही स्थानीय नाम है।
भारत में अनादिकाल से ग्राम, नगर और वन – तीन प्रकार की जीवन व्यवस्थाएं रही हैं। वनवासियों पर अध्ययन करने वालों ने ऐसे दस्तावेज लाए हैं, जिनमें भूमि के पट्टों से लेकर पुराने पत्रों, अभिलेखों आदि में उन देवताओं के नाम हैं, जो सनातन हिंदू धर्म के हैं। लेकिन, इसे अस्वीकार कर वन के लोगों को हमेशा हिंदू और आम सनातन से अलग बताया गया। झारखंड में गैर आदिवासी भी सरना उत्सव में शामिल होते या अपने गांव में पूजा करते देखे जा सकते हैं।
आम मान्यता यही है कि सरना मूल रूप से आदिवासियों में उरांव जाति का त्योहार है। झारखंड में आदिवासियों में कुल 35 जातियों और उपजातियों की गणना हुई है। हालांकि यह नहीं कह सकते कि यह गणना पूरी है, क्योंकि दूरस्थ जंगलों में कई बार गिनती नहीं हो पाती। अंग्रेजों के समय जनगणना में सरना धर्म कोड का अलग से कॉलम होता था, जिसे 1951 में खत्म कर दिया गया। जिन मान्यता को अंग्रेजों ने समाज को बांटने और राज करने की दृष्टि से वैधानिक बनाया, क्या आज भी उसे जारी रखा जा सकता है? सरना को एक पंथ और संप्रदाय के रूप में अवश्य मान्यता देनी चाहिए और उसकी संहिता भी स्वीकार होनी चाहिए, पर इसे सनातन हिंदू धर्म से अलग मानना भारत की स्वाभाविक सचाई पर आघात होगा।-अवधेश कुमार