संपादकीय

‘धर्मस्थलों में वी.आई.पी. कल्चर बंद हो’

सनातन परम्परा में हर काम ईश्वर का ध्यान करके शुरू किया जाता है और मंदिर जाना भी इसका एक हिस्सा है जहां प्रवेश करते ही ऐसी ऊर्जा प्राप्त होती है जिससे शरीर की पांच इंद्रियां (दृष्टिï, श्रवण, स्पर्श, गंध और स्वाद) सक्रिय हो जाती हैं। इनका मंदिर जाने से गहरा सम्बन्ध है। मंदिर कुछ मांगने का स्थान नहीं है। वहां शांतिपूर्वक बैठकर केवल अपने आराध्य भगवान के दर्शन करने चाहिएं परंतु अनेक लोग यह सोचने लगे हैं कि उन्हें भगवान के सामने अपनी मांगें रखने के लिए मंदिर जाना है।

इसी उद्देश्य से मंदिरों में कई बार भगवान के शीघ्र दर्शन पाने की लालसा से पहुंचे भक्तों की भीड़ को काबू करने के समुचित प्रबंध न होने व अन्य कारणों से भगदड़ मच जाती है जिसमें कई बार अनमोल प्राण चले जाते हैं। इसका एक उदाहरण गत 8 जनवरी को देखने को तब मिला जब आंध्र प्रदेश में स्थित ‘तिरुपति मंदिर’ के ‘विष्णु निवास’ के निकट ‘तिरुमाला श्रीवारी वैकुंठ एकादशी’ के पर्व पर श्रद्धालुओं को दर्शन टोकन बांटने के लिए लगाए गए काऊंटरों में से कुछ काऊंटरों पर अचानक उमड़ी भक्तों की भीड़ के कारण भारी भगदड़ मच जाने से 6 श्रद्धालुओं की मौत हो गई।

पुलिस के अनुसार जब टोकन जारी करने वाले एक काऊंटर पर किसी कर्मचारी की तबीयत खराब हुई और उसे अस्पताल ले जाने के लिए वहां के दरवाजे खोले गए तो वहां एकत्रित श्रद्धालुओं ने समझा कि टोकन जारी करने के लिए ‘क्यू लाइन’ खोल दी गई है और वे तुरंत उस ओर दौड़ पड़े जो वहां भगदड़ मचने के परिणामस्वरूप दुखद मौतों का कारण बना। जहां धर्मस्थलों में दर्शनों की उतावली के कारण मचने वाली भगदड़ वहां के प्रबंधन की त्रुटियों का परिणाम है वहीं मंदिरों में दर्शनों के लिए विशिष्टï लोगों को पहल के आधार पर दर्शन करवाने की व्यवस्था भी समस्याएं पैदा करती है।  इसी बारे सुप्रीमकोर्ट में एक याचिका भी विचाराधीन है जिस पर 27 जनवरी को सुनवाई होनी है। इसमें याचिकाकत्र्ता ने कहा है कि ‘‘मंदिरों में विशेष या जल्दी दर्शन के लिए अतिरिक्त ‘वी.आई.पी. दर्शन शुल्क’ वसूल करना संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 के अंतर्गत समानता के सिद्धांत का उल्लंघन है।’’

‘‘अनेक धर्मस्थलों में 400-500 रुपए तक का अतिरिक्त शुल्क लेकर मंदिरों में देवताओं के विग्रह के अधिकतम निकटता तक जल्दी पहुंचा जा सकता है। यह व्यवस्था शारीरिक और आर्थिक बाधाओं का सामना करने वाले वी.आई.पी. प्रवेश शुल्क देने में असमर्थ साधारण भक्तों के प्रति असंवेदनशील है। इससे शुल्क देने में असमर्थ भक्तों से भेदभाव होता है। विशेष रूप से इन वंचित भक्तों में महिलाएं तथा बुजुर्ग अधिक बाधाओं का सामना करने वाले शामिल हैं।’’ इसी सिलसिले में उपराष्टï्रपति श्री जगदीप धनखड़ ने भी 7 जनवरी को धर्मस्थल (कर्नाटक) में स्थित श्री मंजूनाथ मंदिर में देश के सबसे बड़े ‘क्यू काम्प्लैक्स’ (प्रतीक्षा परिसर) का उद्घाटन करते हुए कहा कि, ‘‘हमें विशेष रूप से मंदिरों में वी.आई.पी. कल्चर को समाप्त करना चाहिए, क्योंकि वी.आई.पी. दर्शन का विचार ही देवत्व के विरुद्ध है।’’  ‘‘जब किसी को वरीयता और प्राथमिकता दी जाती है और जब हम उसे वी.वी.आई.पी. या वी.आई.पी. कहते हैं तो यह समानता की भावना को कमतर करने के समान है। वी.आई.पी. कल्चर एक पथभ्रष्टïता है। यह एक अतिक्रमण है। समानता के नजरिए से देखा जाए तो समाज में इसका कोई स्थान नहीं होना चाहिए। धार्मिक स्थानों में तो बिल्कुल भी नहीं।’’ 

श्री धनखड़ ने ठीक ही कहा है क्योंकि ऐसी स्थिति में समानता की भावना को त्याग कर चंद धर्मस्थलों के कुछ पुजारी अपने आपको ही भगवान समझने लगते हैं जो कदापि उचित नहीं है। जहां तक भक्तों की भावनाएं आहत होने का सवाल है तो गत वर्ष सितम्बर में आंध्र प्रदेश में तिरुपति के ही प्रसाद के लड्डुओं में पशु चर्बी की मिलावट वाले घी के इस्तेमाल के आरोप सार्वजनिक होने के बाद पैदा हुआ विवाद अभी तक जारी है तथा इस संबंध में गठित विशेष जांच दल की रिपोर्ट आने के बाद ही स्थिति साफ होगी। अत: सबसे बड़ी जरूरत धर्मस्थलों पर सबके साथ एक जैसा व्यवहार करने तथा अच्छे प्रबंधन की है ताकि न ही कोई अप्रिय दुर्घटना हो और न ही कोई विवाद पैदा होने से भक्तों की भावना आहत हो

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