संपादकीय

अमेरिका में राष्ट्रवाद की जीत

संयुक्त राज्य अमेरिका के बहुचर्चित राष्ट्रपति पद के चुनाव में डोनॉल्ड ट्रंप अपनी प्रतिद्वंद्वी कमला हैरिस को पराजित कर राष्ट्रपति चुने जा चुके हैं। ऐसे में दुनिया भर में कयास लगाए जा रहे हैं कि अमरीका की आर्थिक और सामाजिक नीतियों में क्या बड़े बदलाव हो सकते हैं? पिछली बार भी जब ट्रम्प राष्ट्रपति बने थे तो उन्होंने नीतियों में बड़े फेरबदल किए थे।

राष्ट्रवाद का उभार : वैश्वीकरण, आतंकवाद और धार्मिक उन्माद, युद्ध और आर्थिक उथल-पुथल के चलते पूरी दुनिया में राष्ट्रवाद उभार पर है। वर्तमान अमरीकी राष्ट्रपति चुनाव के नतीजे भी उसी तर्ज पर माने जा सकते हैं। गौरतलब है कि ट्रंप जब पहली बार राष्ट्रपति बने थे, तो उन्होंने चुनाव से पहले और चुनाव के बाद भी इस बात को बार-बार दोहराया था कि वे चीनी वस्तुओं के अंधाधुंध आयात के कारण जंग खाती फैक्ट्रियों को दोबारा शुरू करना चाहते हैं। वे अमरीका की अप्रवासी नीतियों में भी आमूलचूल परिवर्तन चाहते हैं ताकि अमरीकियों के रोजगार की रक्षा हो सके। उन्होंने तो यहां तक कहा कि वे मैक्सिको से हो रही गैर-कानूनी घुसपैठ को रोकने के लिए पूरी सीमा पर दीवार खड़ी करना चाहते हैं। उनका इस बात पर जोर रहा था कि अमरीका को दूरदराज के देशों में सशस्त्र दखल रोकना है, ताकि अमरीका को गैर जरूरी खर्चों से बचाया जा सके। रूस जैसे देश जिसके साथ अमेरिका के संबंध कभी भी मधुर नहीं रहे, उसके साथ भी ट्रंप ने दोस्ती का हाथ बढ़ाया और रूस के राष्ट्रपति पुतिन के साथ उनकी मित्रता भी काफी चर्चा में रही। अपनी इन्हीं नीतियों के कारण ट्रम्प बहुसंख्यक अमरीकियों में अपनी लोकप्रियता के चलते पुन: राष्ट्रपति बनने में सफल हो सके। अमेरिका प्रथम ट्रंप प्रशासन का मूल मंत्र रहा है। यानी कुल मिलाकर अमेरिका में ट्रंप के राष्ट्रवाद का जादू सिर चढक़र बोल रहा है।

उधर यूरोप में भी राष्ट्रवाद पुन: उभार ले रहा है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद यूरोपीय देशों में पहले उदारवाद और बाद में भूमंडलीकरण और यहां तक कि खुली अप्रवासी नीति भी अपनाई जाने लगी थी। लेकिन आज यूरोपीय देश राष्ट्रवाद पर सवार होकर अपनी अर्थव्यवस्था और समाज की चिंता कर रहे हैं। सबसे पहले ब्रिटेन ने ब्रेक्सिट के माध्यम से स्वयं को यूरोपीय समुदाय से अलग किया। हालांकि ब्रिटेन के अलावा यूरोपीय समुदाय के सभी देश भी समुदाय में बने हुए हैं, लेकिन सभी देशों में जहां पूर्व में उदारवादी सरकारों का बोलबाला था, अब राष्ट्रवाद का ज्वार बढ़ता दिख रहा है। छह प्रमुख यूरोपीय देशों इटली, फिनलैंड, स्लोवाकिया, हंगरी, क्रोएशिया और चेक गणराज्य में तो राष्ट्रवादी सरकारें पहले से ही स्थापित हो चुकी हैं, कई अन्य देशों में राष्ट्रवादी पार्टियां काफी ताकतवर हो रही हंै। स्वीडन में सरकार का अस्तित्व राष्ट्रवादी दल नेशनलिस्ट स्वीडेन डेमोक्रेट के समर्थन पर टिका है। नीदरलैंड में इस्लाम विरोधी ग्रीट वाइल्डर का दल सत्ता में महत्वपूर्ण भूमिका में है। जर्मनी और फ्रांस में भी राष्ट्रवादी राजनीतिक दलों का प्रभाव अभूतपूर्व रूप से बढ़ रहा है, और वो सत्ता के काफी नजदीक पहुंच रहे हैं। इन सब बदलावों का असर यूरोपीय समुदाय के चुनावों पर भी दिख रहा है। पंथनिरपेक्षता के नाम पर जैसे जैसे अल्पसंख्यक समुदायों का तुष्टिकरण बढ़ा, और तुष्टिकरण के साथ ही साथ अतिवाद भी बढ़ा। साथ हाल ही में फ्रांस और इंग्लैंड में इस अतिवाद के भयानक दृश्य भी सामने आए। इन सब घटनाओं से भी यूरोप और अमरीका में ही नहीं पूरी दुनिया में जनमानस का मूड बदला है।

राष्ट्रवाद की जीत के मायने : चाहे यूरोप हो या अमरीका, राष्ट्रवाद की जीत के कई निहितार्थ हैं। सबसे पहले समझना होगा कि यह अतिवादी ताकतों की एक बड़ी हार है। ट्रम्प ने अपने चुनावी भाषणों में हिंदुओं की भूरि-भूरि प्रशंसा की है और अमरीका में उनकी भूमिका को सराहा है, और यहां तक कि स्वयं को हिंदुओं का बड़ा प्रशंसक तक बताया है। इससे पहले किसी अमरीकी राष्ट्रपति ने ऐसा नहीं किया। उधर हालांकि ट्रम्प मुस्लिमों के खिलाफ तो नहीं, लेकिन उन्होंने साफ-साफ कहा है कि जो मुस्लिम अप्रवासी हमास का समर्थन करेंगे, वे उन्हें अमरीका से बाहर कर देंगे। यानी ट्रम्प किसी भी प्रकार के अतिवाद के विरोधी हैं। गौरतलब है कि बाईडेन प्रशासन ने अतिवादी ताकतों का समर्थन करने वाली कनाडा सरकार का समर्थन किया था। आने वाला ट्रम्प प्रशासन ऐसा नहीं करेगा। महत्वपूर्ण है कि जहां अतिवादी, वामपंथी, वोक, समलैंगिक मानवाधिकार समर्थक एक तरफ खड़े दिखाई देते हैं, ट्रंप ने स्पष्ट रूप से अमरीकी राष्ट्रवाद (अमेरिका प्रथम) का जो नारा दिया और जीत हासिल की, वह इस बात का प्रमाण है कि ट्रंप की जीत एक प्रकार से अतिवादी, वामपंथी, वॉकिज़्म आदि ताकतों की भी हार है।

एलन मस्क की भूमिका : अमेरिकी चुनावों में अमेरिका के एक बड़े उद्योगपति और अरबपति एलन मस्क की भूमिका भी अमेरिकी चुनावों में महत्वपूर्ण रही। समझना होगा कि एलन मस्क निजी तौर पर वॉकिज़्म शिकार हुए हैं। अमेरिका खास तौर पर कैलिफोर्निया राज्य में विद्यालय वॉकिज़्म इस कदर शिकार हैं कि पांच वर्ष के बच्चे से भी कहा जाता है कि वो स्वयं के बारे में निर्णय करने के लिए स्वतंत्र है कि वो किस लिंग को अपनाना चाहता है। बच्चों को लिंग बदलने के लिए प्रेरित ही नहीं प्रोत्साहित भी किया जाता है। इसी प्रकार एलन मस्क के पुत्र को भी बरगलाया गया और एलन मस्क से भी धोखे से सहमति ले ली गई और उनके पुत्र को हार्मोन्स देकर बालिका में बदल दिया गया। वॉकिज़्म की शिकार पुत्र से परिवर्तित पुत्री ने एलन मस्क से अपने रिश्ते भी तोड़ दिए। ऐसे में खिन्न एलन मस्क ने वॉकिज़्म के खिलाफ काम करने का निर्णय ले लिया। यह महज संयोग नहीं कि चाहे एलन मस्क पहले तो ट्रंप के विरोधी थे, लेकिन बाद में वो उनके समर्थक हो गए। ट्विटर सोशल मीडिया प्लेटफार्म को खरीदने के बाद ट्रम्प को ट्विटर पर बहाल किया और यही नहीं अपने उदासीन रुख को छोडक़र वे सीधे सीधे ट्रंप के समर्थन में आ गए। ट्रंप की जीत में एलन मस्क की महत्वपूर्ण भूमिका बतायी जा रही है। यह भी समझा जा सकता है कि यह चुनाव वॉकिज़्म के खिलाफ भी एक चुनाव है। हम समझते हैं कि यह चुनाव आर्थिक मुद्दों के अलावा वोकिज्म, अतिवाद, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बनाम सेंसरशिप के मुद्दों पर लड़ा गया था, जहां ट्रम्प घरेलू व्यवसायों की रक्षा और बढ़ावा देकर, अप्रवास को प्रतिबंधित करके और अनिर्दिष्ट अप्रवासियों को निर्वासित करके, अमेरिकियों के लिए नौकरियों की रक्षा के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका में काम करके अमेरिका को फिर से महान बनाने के अपने संकल्प को दोहरा रहे थे। लेकिन ट्रम्प की जीत का भारत के लिए क्या मतलब है, यह एक बड़ा सवाल है।

अमेरिका-चीन तनाव को देखते हुए, जिसके बढऩे की संभावना है, ट्रम्प के सत्ता में आने पर विदेशी फर्मों को प्रोत्साहित किया जा सकता है, जो भारत को एक वैकल्पिक विनिर्माण केंद्र के रूप में देखते हैं। इससे भारत को अपने आत्मनिर्भर भारत पहल के माध्यम से अपने घरेलू विनिर्माण को मजबूत करने का अवसर मिल सकता है। हालांकि, ट्रम्प के संरक्षणवादी रुख और टैरिफ बढ़ाने के कारण भारत को अमेरिका को निर्यात में नुकसान होने की भी चिंता हो सकती है, लेकिन दूसरी ओर व्यक्तियों और व्यवसायों पर करों में संभावित कमी से अमेरिका के विकास में सुधार हो सकता है, जिससे भारत के निर्यात को लाभ होगा। अमेरिका एच-1-बी वीजा को सख्त कर सकता है, जिससे भारतीय प्रौद्योगिकी और सेवा क्षेत्र की कंपनियों के लिए समस्याएं पैदा हो सकती हैं, क्योंकि उनके संचालन की लागत बढ़ सकती है। कुछ आलोचक जलवायु परिवर्तन पर ट्रंप के रुख से भी चिंतित हैं, जिससे नेट जीरो लक्ष्यों को प्राप्त करने में देरी हो सकती है।-अश्वनी महाजन

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