ईवीएम पर बेवजह उठ रहे सवाल, यह लोकतंत्र के लिए…
भारत विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में प्रतिष्ठित है, लेकिन पिछले कुछ समय से देश में ऐसे प्रयास हो रहे हैं जो इस प्रतिष्ठा पर आघात करते हैं। ये प्रयास चुनावी प्रक्रिया पर सवाल उठाने से जुड़े हैं। इन सवालों के घेरे में सबसे प्रमुख तो इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन यानी ईवीएम है।
निर्वाचन आयोग से लेकर अन्य जिम्मेदार संस्थाओं पर भी गैर-जिम्मेदाराना ढंग से आरोप लगाने का सिलसिला जोर पकड़ता जा रहा है। चुनाव हारने वाले राजनीतिक दल ही अक्सर ईवीएम और चुनाव आयोग को लेकर दुष्प्रचार करना शुरू कर देते हैं। ऐसे आरोप तब अपना आधार खो देते हैं, जब उसी दल या उसके सहयोगी को उसी दौरान हुए किसी अन्य राज्य के चुनाव में सफलता मिल जाती है, लेकिन दूसरे प्रदेश में वह हार जाता है।
हाल के समय में पहले जम्मू-कश्मीर एवं हरियाणा और फिर महाराष्ट्र एवं झारखंड में यही सिलसिला देखने को मिला। जहां महाराष्ट्र की हार के बाद शरद पवार जैसे अनुभवी नेता ने भी ईवीएम को लेकर सवाल उठाने शुरू कर दिए। उनके गठबंधन के सहयोगी नेता उद्धव ठाकरे ने तो उन एक्टिविस्ट से मेल-मुलाकात की जो ईवीएम के खिलाफ मुहिम चलाने के लिए जाने जाते हैं।
कांग्रेस ने तो इस मामले में तब हद ही कर दी, जब उसने भारत जोड़ो यात्रा की तरह ईवीएम विरोधी यात्रा निकालने का एलान किया। हालांकि इन दलों को झारखंड में भाजपा को मिली हार में ईवीएम के स्तर पर दोष नहीं दिखता। विपक्षी खेमे के इन नेताओं के आरोपों की हवा खुद उमर अब्दुल्ला और टीएमसी नेता अभिषेक बनर्जी जैसे सहयोगी निकाल देते हैं। जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री और नेशनल कांफ्रेंस के मुखिया उमर अब्दुल्ला ने बीते दिनों स्पष्ट रूप से कहा, ‘हारे तो ईवीएम खराब, जीते तो सही, यह नहीं चलेगा।’ उमर की इस नसीहत के बावजूद ईवीएम विरोध को लेकर विपक्षी दलों का यह रवैया बदलने वाला नहीं है।
ईवीएम को लेकर विपक्षी नेता हर बार कोई दूर की कौड़ी लेकर आते हैं। जैसे हरियाणा चुनाव के बाद ईवीएम की बैट्री के स्तर को लेकर नया विवाद शुरू किया गया कि इतने उपयोग के बाद भी उनकी बैट्री इतनी चार्ज कैसे रह सकती है? चुनाव आयोग ने इसका स्पष्टीकरण भी दिया, लेकिन महाराष्ट्र चुनाव नतीजों के बाद ऐसे आरोप फिर से सतह पर आने लगे। कभी ईवीएम में पहले से ही किसी पार्टी के पक्ष में कुछ वोट फीड करने के आरोप लगाए जाते हैं।
कुछ और नहीं तो मतदान प्रतिशत के अंतिम आंकड़े पर विवाद खड़ा कर दिया जाता है। कभी ईवीएम को हैक करने के आरोप लगाए जाते हैं, लेकिन चुनाव आयोग द्वारा हैकाथन जैसे आयोजन के बावजूद ऐसा कोई आरोप सिद्ध नहीं किया जा सका। यह स्थिति तब है जब चुनावी प्रक्रिया के प्रत्येक पड़ाव को सभी राजनीतिक दलों एवं प्रत्याशियों के प्रतिनिधियों की सहमति के बाद ही आगे बढ़ाकर समूची निर्वाचन प्रक्रिया को संपादित किया जाता है। इसी प्रकार मतदाता सूचियों में हेरफेर के आरोप भी लगाए जाते रहे हैं। चुनाव के बाद ऐसे आरोपों का क्या तुक और उनके पक्ष में पुख्ता प्रमाण भी नहीं दिए जाते।
हालांकि ऐसा नहीं है कि मौजूदा विपक्ष को ही ईवीएम में खोट नजर आती है। विपक्ष में रही भाजपा भी ईवीएम के खिलाफ आवाज उठाती रही है। उसके शीर्ष नेता लालकृष्ण आडवाणी ने एक पुस्तक में ईवीएम विरोध पर विचार भी व्यक्त किए थे। इसमें कोई संदेह नहीं कि दुनिया की सबसे बड़ी चुनावी प्रक्रिया में कहीं किसी छोटे स्तर पर कुछ तकनीकी आदि कारणों से गड़बड़ हो सकती है, लेकिन संस्थागत रूप से कोई व्यापक गड़बड़ी संभव नहीं, जिससे किसी एक पार्टी को ही फायदा पहुंचे।
आज के इंटरनेट मीडिया युग में जहां हर छोटी बात बड़ी बन जाती हो और मीडिया की व्यापक निगरानी हो, वहां चुनावी प्रक्रिया में विसंगति से जुड़े आरोप भरोसेमंद नहीं लगते। यह सही है कि चुनावी प्रक्रिया में बाहुबल एवं धनबल के अलावा नाना प्रकार के संसाधनों और मीडिया एवं इंटरनेट मीडिया द्वारा विमर्श के स्तर पर हस्तक्षेप से मतदाताओं को साधने के उपायों को लेकर कुछ सवाल खड़े हो सकते हैं, लेकिन इससे पूरी चुनाव प्रक्रिया और संस्थानों को कठघरे में नहीं खड़ा किया जा सकता।
ईवीएम पर सवाल उठाने वाले यह अनदेखा करते हैं कि पिछले ढाई-तीन दशकों में चुनावी सुधार का यह सबसे सशक्त प्रतीक बनकर उभरा है। इसने वंचित तबकों की लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति को नए आयाम दिए हैं। कई अध्ययनों में यह सामने आया है कि ईवीएम के आने के बाद मतों का निरस्त होना लगभग नगण्य हो गया है। मतपत्रों से होने वाले मतदान में विभिन्न कारणों से मत निरस्त हो जाते थे और ऐसा वंचित एवं कम पढ़े-लिखे वर्गों के साथ ही ज्यादा देखने को मिलता था।
मतपत्र वाली व्यवस्था में बड़े पैमाने पर धांधली की तस्वीरें भी बहुत सामान्य हो गई थीं। ऐसे में, ईवीएम के सकारात्मक प्रभावों का संज्ञान लिया जाना चाहिए कि किस प्रकार वह कतार में खड़े अंतिम व्यक्ति के मूल लोकतांत्रिक अधिकार की संरक्षक बनी है। ईवीएम के आने से मतदाताओं की बढ़ी सहभागिता बढ़ते मतदान प्रतिशत में स्पष्ट भी हो रही है।
किसी भी लोकतंत्र के लिए यह शुभ संकेत नहीं कि उसमें हितधारक तत्व ही उसके प्रति संदेह के बीज बोने का काम करें। यदि इस प्रवृत्ति पर समय रहते अंकुश नहीं लगा तो इसके दूरगामी दुष्प्रभाव देखने को मिलेंगे। इसका सबसे बड़ा खामियाजा तो आरोप लगाने वाले दलों को ही भुगतना पड़ेगा।
इसका एक कारण यह है कि भले ही ये आरोप निराधार हों, मगर पार्टी कार्यकर्ताओं एवं मतदाताओं में यह गलत धारणा घर करती जाएगी कि वे कितनी ही मेहनत क्यों न कर लें, मगर ईवीएम के चलते वे नहीं जीत पाएंगे। इससे उन दलों की संभावनाएं ही प्रभावित होंगी।
आरोपों का सिलसिला कायम रहने से चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्था और अन्य संस्थानों की साख पर भी असर पड़ेगा। ऐसे में, यह चुनाव आयोग और अन्य संस्थाओं की जिम्मेदारी है कि जो भी सवाल उठें, वे उनका तथ्यों के साथ जवाब दें। आयोग को इसके लिए एक ऐसा एप तैयार करना चाहिए, जिसमें सभी रियल टाइम जानकारियां पूरे तथ्यों के साथ उपलब्ध हो सकें, जो किसी भी दुष्प्रचार पर विराम लगाने में सहायक बनें।