संपादकीय

क्या बांग्लादेश को 1971 की याद नहीं दिलानी चाहिए?

बांग्लादेश में हिंदू अल्पसंख्यकों पर कातिलाना हमले और उनके मंदिरों को तोडऩे, आग लगा देने की घटनाओं पर भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर संसद के दोनों सदनों में वक्तव्य देंगे। विदेश मामलों की संसदीय स्थायी समिति के सामने भी मंत्रालय बांग्लादेश की घटनाओं का खुलासा करेगा। क्या बांग्लादेश की कट्टरपंथी जमात और हिंदुओं पर किए जा रहे अत्याचारों पर भारत सरकार का यह रुख ही पर्याप्त है? क्या प्रधानमंत्री मोदी को वहां की अंतरिम सरकार के मुखिया मुहम्मद यूनुस से सख्त लहजे में बात नहीं करनी चाहिए? क्या बांग्लादेश को 1971 की याद नहीं दिलानी चाहिए? हम नहीं जानते कि कूटनीति क्या कहती है, लेकिन हम वहां के हिंदुओं के अस्तित्व को लेकर चिंतित हैं। बांग्ला हिंदू भी बुनियादी तौर पर ‘भारतीय’ ही हैं। चिंतित सरोकार तो यह है कि यूनुस मौजूदा घटनाओं और हत्याओं को ‘हिंदू अत्याचार’ मानते ही नहीं! बांग्लादेश की सडक़ों पर जो बेखौफ भीड़ दिखाई देती है, हिंदुओं को मारने-काटने के जो नारे बुलंद किए जा रहे हैं, रात में हिंदुओं के घरों में घुसकर सेना और पुलिस जो यातनाएं दे रही हैं, अपहरण-धर्मांतरण किए जा रहे हैं, मंदिरों में देवी-देवताओं की जिस तरह प्रतिमाएं खंडित की जा रही हैं, क्या वे खुद हिंदू ही कर रहे हैं? भारत के हिंदू हों या बांग्लादेश में बसे हिंदू हों, सभी सनातनी संस्कृति के आस्थावान समुदाय हैं। उनके जीवन और धार्मिक स्वतंत्रता की सुरक्षा करना प्रधानमंत्री मोदी का ही समान दायित्व है। यह बांग्लादेश का आंतरिक मामला नहीं है। विदेश राज्य मंत्री कीर्तिवर्धन सिंह का राज्यसभा में दिया यह बयान बिल्कुल गलत है कि हिंदुओं और अल्पसंख्यकों की रक्षा करना वहां की सरकार की जिम्मेदारी है। वहां के कट्टरपंथी तो बांग्लादेश को हिंदू-मुक्त करना चाहते हैं।

वे ऐसे ऐलान भी करते रहे हैं। स्थानीय विश्वविद्यालयों से हिंदू प्रोफेसरों को जबरन निकाला जाता रहा है। वहां की सरकार खामोश, कन्नी काट कर बैठी रहेगी, तो क्या भारत सरकार भी तटस्थ बनी रहेगी? शायद बांग्लादेश की मौजूदा पीढ़ी को याद नहीं है कि 1971 में पूर्वी पाकिस्तान को बांग्लादेश बनाने में भारत का निर्णायक योगदान था। यदि भारतीय सेना तत्कालीन ‘मुक्तिवाहिनी’ के आंदोलन के साथ न जुड़ती, तो शायद बांग्लादेश ही न बनता! बेखौफ, बेलगाम घूमती कट्टरपंथी जमात को यह इतिहास पढ़ाया जाना चाहिए। बांग्लादेश की मौजूदा पीढ़ी को यह भी याद नहीं होगा कि जब ‘बांग्लादेश’ बन रहा था, तब चारों ओर भुखमरी, गरीबी के ही हालात थे। उस दौर में ‘इस्कॉन’ ने ही रोजाना लाखों लोगों को भोजन मुहैया कराया था। भारत में भी करीब 12,000 बांग्लादेशियों को हर रोज खाना खिलाया गया था। आज भी बांग्लादेश में ‘इस्कॉन’ 77 मंदिरों का संचालन कर रहा है और 75,000 से अधिक उसके अनुयायी हैं। तब प्रख्यात सितारवादक पंडित रवि शंकर ने एक अन्य विदेशी संगीतकार के साथ मिल कर न्यूयॉर्क में कंसर्ट किया था, जिससे बांग्लादेश के लिए 100 करोड़ रुपए जुटाए गए थे। क्या बांग्लादेशी उस एहसान की कीमत चुका सकते हैं? क्या उसी ‘इस्कॉन’ को हिंदू-विरोधी जमात ‘आतंकवादी’ करार देगी? यह तो संतोष की बात है और उसके लिए अदालत के नीर-क्षीर विवेक का आभार व्यक्त करना चाहिए कि ढाका उच्च न्यायालय ने ‘इस्कॉन’ पर प्रतिबंध लगाने से इंकार कर दिया और हुकूमत समर्थित याचिका को खारिज कर दिया। बहरहाल, हिंदुओं की सुरक्षा की सबसे अधिक जिम्मेदारी भारत सरकार की बनती है।

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