आरएसएस का अकाट्य समर्थन, ‘समंदर’ लौट आया
अंतत: देवेंद्र फडणवीस ही महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बने। एनसीपी नेता अजित पवार तो जनादेश घोषित होते ही भाजपा मुख्यमंत्री को समर्थन देने को तैयार थे। उन्होंने समर्थन का ऐलान भी कर दिया था, लेकिन शिवसेना प्रमुख एकनाथ शिंदे शपथ-ग्रहण से कुछ घंटे पहले तक भी उपमुख्यमंत्री बनने पर सहमत नहीं थे। हालांकि फडणवीस ने शिंदे के साथ, बंद कमरे में, घंटों बातचीत की, उन्हें गठबंधन बरकरार रखने की राजनीतिक अनिवार्यता समझाई, कुछ आकर्षक पेशकश भी की गई होंगी, अलबत्ता गृह विभाग के लिए भाजपा साफ इंकार कर चुकी थी, लेकिन शिंदे आखिरी क्षणों तक भी मुख्यमंत्री से उपमुख्यमंत्री बनने को राजी नहीं हुए। आखिर वह कैसे भूल गए कि 40 विधायकों वाली शिवसेना को 104 विधायकों वाली भाजपा ने समर्थन देकर शिंदे को मुख्यमंत्री बनाया था। पांच साल तक मुख्यमंत्री रहे फडणवीस को उपमुख्यमंत्री बनने को पार्टी नेतृत्व ने बाध्य किया था। बहरहाल मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्रियों ने समन्वय और समर्थन के साथ शपथ ग्रहण की और कैबिनेट की पहली बैठक में ही कुछ महत्वपूर्ण फैसलों पर मुहर लगाई। फडणवीस ने सदन में जो कविता सुनाई थी, वह साकार हो उठी कि ‘समंदर’ एक बार फिर लौट आया है। देवेंद्र फडणवीस ने भाजपा के चुनाव-अभियान का नेतृत्व किया था और 64 जनसभाओं को संबोधित भी किया था। उसके बावजूद मुख्यमंत्री बनने में 12 दिन लगे। यदि आरएसएस का अकाट्य और सार्थक समर्थन नहीं होता, तो शायद महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री भी गुजरात, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और ओडिशा की तर्ज पर कोई अनजान चेहरा ही होता। प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह की यही राजनीति रही है कि वे पीछे बैठने वाले चेहरे को अचानक मुख्यमंत्री बनाते रहे हैं। संघ ने महाराष्ट्र में उस रणनीति के लिए प्रधानमंत्री मोदी को रोका और समझाया।
अंतत: फडणवीस पर ही अंतिम निर्णय लिया गया। मुख्यमंत्री फडणवीस के सामने कई गंभीर चुनौतियां हैं, हालांकि सरकार राजनीतिक तौर पर स्थिर है। महायुति सरकार को ‘लाडकी बहिना’ योजना के तहत 1500 रुपए से बढ़ा कर राशि 2100 रुपए माहवार करनी है। इस योजना को एकनाथ शिंदे अपनी मानस-योजना बताते हैं, जबकि भाजपा मप्र में शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में यह चुनावी प्रयोग कर चुकी थी और घर-घर महिलाओं के खातों में पैसा भेजा जा रहा था। बहरहाल महाराष्ट्र में यह चुनावी संकल्प तो पूरा करना ही है, लेकिन महाराष्ट्र का आर्थिक यथार्थ यह है कि उस पर 7.82 लाख करोड़ रुपए का कर्ज है। वैसे भारतीय जीडीपी में महाराष्ट्र का योगदान 13.3 फीसदी का है, जो सर्वाधिक है। यदि ‘लाडकी बहिना’ की राशि 2100 रुपए करनी है, तो महाराष्ट्र में बुनियादी ढांचा विकास के लिए पूंजी की उपलब्धता कम पड़ सकती है। यदि राजस्व संग्रह बेहतर और अधिक नहीं हुआ, तो कुछ विशेषज्ञों के आकलन हैं कि आने वाले महीनों में सरकारी कर्मचारियों के वेतन-भत्ते देना भी मुश्किल हो सकता है। महाराष्ट्र देश के विकास और समृद्धि का ‘प्रमुख इंजन’ है। यदि वह वित्तीय गैर-जिम्मेदारी का ‘पोस्टर ब्वॉय’ बना, तो इससे बड़ी ‘आर्थिक त्रासदी’ कोई और नहीं हो सकती। भाजपा के नेतृत्व में ‘महायुति सरकार’ की छीछालेदर भी होगी। चुनावी दृष्टि से कई सरकारी योजनाएं घोषित की गई थीं, लाभार्थी समूह भी तैयार किया गया, उनके तहत विभिन्न समुदाय, जातियां, धर्म के लोग कवर किए गए, ओबीसी आरक्षण में ही मराठाओं का कोटा तय करने का आश्वासन दिया गया, अब उन सभी योजनाओं को प्राथमिकता के स्तर पर क्रियान्वित करना होगा। महायुति सरकार के सामने बड़ी आर्थिक चुनौतियां संकट पैदा कर सकती हैं। महाराष्ट्र में दो सबसे बड़े स्टॉक एक्सचेंज भी हैं, लिहाजा आर्थिक राजधानी के साथ-साथ वह ‘स्टार्टअप’ की भी स्वाभाविक पसंद है, लेकिन बेंगलुरु खराब बुनियादी ढांचे के बावजूद और दिल्ली प्रचंड प्रदूषण के बावजूद ‘स्टार्टअप’ को लेकर बेहतर काम कर रहे हैं। हैदराबाद और चेन्नई भी आगे बढ़ते हुए चुनौतियां पेश कर रहे हैं।