राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और राजनीति
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ डा. हेडगेवार के समय से लेकर डा. मोहन भागवत तक के काल में देश के इन्हीं सामाजिक-सांस्कृतिक मसलों से बावस्ता रहा है और प्रयास करता रहा है कि देश की राजनीति देश की समाज रचना और संस्कृति के केन्द्र बिन्दु के इर्द-गिर्द निर्मित होनी चाहिए…
संघ का देश की राजनीति से क्या संबंध है, यह प्रश्न प्रथम सरसंघचालक डा. हेडगेवार के समय से ही चर्चा में रहा है। पिछले दिनों भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा के एक बयान से फिर चर्चा में आ गया है। आधिकारिक रूप से संघ सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन है। उसका व्यावहारिक राजनीति से कुछ लेना-देना नहीं है। लेकिन सामाजिक-सांस्कृतिक मुद्दों का क्या देश की राजनीति से कोई संबंध है या फिर ये दोनों पूरी तरह अलग-अलग क्षेत्र हैं, यह प्रश्न सबसे महत्वपूर्ण है। देश के समाजशास्त्र और संस्कृति में से ही राजनीति या राज्य की नीति बनती है। राज्य की नीति मोटे तौर पर किसी भी राज्य का शासक या शासक दल बनाता है। यदि व्यवस्था तानाशाही है तो शासक, लेकिन यदि व्यवस्था लोकतांत्रिक है तो शासक दल राज्य की नीति का निर्धारक है। यदि राज्य की नीति देश की संस्कृति या समाजशास्त्र से न जुड़ी हो तो वह ज्यादा देर स्थिर नहीं रह सकती। यह दो स्थितियों में संभव है। यदि किसी देश पर विदेशी राज्य का शासन हो जाता है तो जाहिर है कि वह अपने मूल राज्य के हितों के लिए विजित राज्य की नीति का निर्माण करेगा। जैसा भारत के मामले में हुआ था। यहां लम्बे अरसे तक एटीएम (अरब, तुर्क, मुगल मंगोल) मूल के लोगों का शासन रहा। उसके बाद देश के बड़े हिस्से पर ब्रिटेन राज्य का शासन रहा। थोड़े से हिस्से पर पुर्तगाल व फ्रांस राज्य का शासन रहा। जाहिर है कि इन सभी ने भारत में जिस राजनीति का विकास किया, उसका इस देश की संस्कृति व समाज से कुछ लेना-देना नहीं था। उनकी राजनीति अपने मूल देशों/राज्यों के हितों का संवर्धन करने वाली ही थी। लेकिन यह भी निश्चित ही है कि कोई भी विदेशी शासक किसी दूसरे देश में अपनी राजनीति अपने बलबूते ही कभी भी लागू नहीं कर सकता।
इसके लिए वह विजित देश के ही कुछ लोगों की मदद लेता है। हर युग में ऐसे लोग होते हैं। भारत इसका उदाहरण है। लेकिन स्पष्ट है कि किसी देश की राजनीति और उसकी संस्कृति के परस्पर विरोधी होने का कारण उस देश पर विदेशी राज्य के शासन के कारण ऐसा संभव है। लेकिन यह भी संभव है कि किसी राज्य/देश में शासन वहीं के राजनीतिक दल का हो, लेकिन तब भी उसकी राजनीति वहां के समाजशास्त्र और संस्कृति के विपरीत हो। यह देखने-सुनने में कुछ अजीब लगता है, लेकिन यह संभव भी है और ऐसा हुआ भी है। इसके लिए रूस का उदाहरण लिया जा सकता है। कई दशक पहले रूस में रूस की ही कम्युनिस्ट पार्टी का शासन स्थापित हो गया। वह शासन तानाशाही था या लोकतांत्रिक था, यह बहस का मुद्दा नहीं है, क्योंकि यह उस देश का आंतरिक मामला ही माना जाएगा। लेकिन रूस की कम्युनिस्ट पार्टी की राजनीति/राजनीतिक व्यवस्था उस देश की मूल संस्कृति व स्वभाव/प्रकृति के विपरीत थी। इसलिए सात-आठ दशक में ही शासक दल और राजनीति दोनों ही अपदस्थ कर दी गईं। वहां के लोग पुन: अपने परम्परागत प्रतीकों, इतिहास से जुड़ गए। अत: यह स्पष्ट है कि किसी भी राज्य/देश में सामाजिक-सांस्कृतिक प्रश्न वहां के राजनीतिक प्रश्नों से बिल्कुल अलग नहीं हो सकते। ये परस्पराश्रित हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना 1925 में ही हुई थी। अपने अपने हिसाब से दोनों ने देश के महत्वपूर्ण मसलों/प्रश्नों पर अपने अपने ढंग से विचार करना शुरू किया और उन्हें देश की राजनीति के केन्द्र में स्थापित करने की कोशिश की, ताकि किसी भी राजनीतिक दल का शासन हो, लेकिन वह इन सांस्कृतिक/सामाजिक प्रश्नों से आंख न चुरा सके। लेकिन आज लगभग दस दशकों बाद भारत का कम्युनिस्ट आन्दोलन हाशिए पर चला गया है और संघ द्वारा उठाए गए प्रश्न देश की राजनीति के केन्द्र बिन्दु में आ गए हैं।
ऐसा कैसे हुआ? क्योंकि कम्युनिस्ट पार्टी की राजनीति रूस की राजनीति की ही तरह, देश की सामाजिक-सांस्कृतिक धारा से नहीं निकली थी। इसके विपरीत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने कभी राजनीति में हिस्सा भी नहीं लिया, लेकिन उसके मुद्दे देश की राजनीति के केन्द्र में प्रस्तावित हो गए क्योंकि उसके मुद्दे देश की सामाजिक-सांस्कृतिक धारा में से निकले थे। यानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक राजनीति में न होते हुए भी देश की राजनीति को प्रभावित कर सका और कम्युनिस्ट पार्टी राजनीति में होते हुए भी न तो देश की राजनीति की दिशा निर्धारित कर सकी और न ही देश की सामाजिक-सांस्कृतिक धारा पर अपना कोई प्रभाव छोड़ सकी। लगभग यही स्थिति कांग्रेस की है। कांग्रेस पार्टी देश की सामाजिक-सांस्कृतिक धारा से जुड़ी हुई है या नहीं, यह प्रश्न सदा विवादास्पद रहेगा। संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का गठन करने के निर्णय तक कांग्रेस आन्दोलन के बीच के रास्तों की यात्रा करते हुए ही पहुंचे थे। यह ठीक है कि उन्होंने कांग्रेस के भीतर की इस आश्चर्यजनक स्थिति पर कोई विपरीत टिप्पणी नहीं की क्योंकि वे मानते थे कि यह विदेशी शासन से लडऩे का समय है, अत: सभी प्रयासों/आंदोलनों को एक दूसरे का पूरक ही मानना चाहिए।
लेकिन डा. भीमराव रामजी अंबेडकर उतने उदार नहीं थे। उन्होंने पूरी तरह से कांग्रेस के भीतर का एक्सरे किया और उसकी रपट देश के सामने प्रस्तुत की। अंबेडकर का कहना था कि शुरू में कांग्रेस अपनी राजनीति में देश के सामाजिक-सांस्कृतिक प्रश्नों को जोड़ कर चलती थी। कांग्रेस मानती थी कि देश की राजनीति और सामाजिक-सांस्कृतिक प्रश्न परस्पर गुंफित हैं। यही कारण था कि जब कांग्रेस का वार्षिक राजनीतिक अधिवेशन होता था तो उसके दूसरे ही दिन उसी पंडाल में कांग्रेस का सामाजिक अधिवेशन होता था। यानी कांग्रेस मान कर चलती थी कि सामाजिक-सांस्कृतिक आधार के बिना देश की राजनीति बंजर व बांझ है। लेकिन बाद में हुए पुणे अधिवेशन में कांग्रेस ने आश्चर्यजनक रूप से पलटी मारी। उसने सामाजिक-सांस्कृतिक अधिवेशन बन्द ही नहीं किया, बल्कि जो कांग्रेसी वह अधिवेशन करना भी चाहते थे, उनका डटकर विरोध भी किया। इसका अर्थ है कि कांग्रेस ने सार्वजनिक रूप से अपनी राजनीति को देश के सामाजिक-सांस्कृतिक प्रश्नों से अलग कर लिया। यानी अपनी राजनीति को बांझ बना दिया। कांग्रेस ने ऐसा किन शक्तियों के आग्रह पर किया? क्या इसमें उस समय के ब्रिटिश शासकों का भी कोई हाथ था, यह आज भी शोध का विषय है। ऐसा माना जाता है कि किसी भी देश की सामाजिक व्यवस्था और सामाजिक मसलों में युगानुकूल परिवर्तन होता रहता है।
जीवन्त समाज कभी जड़ नहीं हो सकता। वह युग की आवश्यकताओं के अनुरूप अपने आपको ढालता रहता है। अंबेडकर मानते थे कि हिन्दु समाज की सबसे बड़ी खूबी यही है कि उसमें युगानुकूल परिवर्तन की आन्तरिक व्यवस्था विद्यमान है। यही व्यवस्था उसे सनातन काल से लेकर आज तक प्रगतिशील भी बनाती है और जड़ों से जुड़े रहने की ताकत भी प्रदान करती है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ डा. हेडगेवार के समय से लेकर डा. मोहन भागवत तक के काल में देश के इन्हीं सामाजिक-सांस्कृतिक मसलों से बावस्ता रहा है और प्रयास करता रहा है कि देश की राजनीति देश की समाज रचना और संस्कृति के केन्द्र बिन्दु के इर्द-गिर्द निर्मित होनी चाहिए, न कि इनसे किनारा करके। यदि वह ऐसा करती है तो वह बांझ राजनीति होगी। संघ राजनीति में दखलअंदाजी नहीं करता व व्यावहारिक राजनीति में छलांग लगाता है। उसका प्रयास यही रहता है कि देश की राजनीति राज्य और राष्ट्र के स्वभाव और प्रकृति के अनुकूल होनी चाहिए, न कि उसके विपरीत।-कुलदीप चंद अग्निहोत्री