ओबीसी प्रमाणपत्र ‘अवैध’
कलकत्ता उच्च न्यायालय ने पश्चिम बंगाल में, 2010 के बाद, सभी ओबीसी प्रमाणपत्रों को निरस्त कर दिया है। इस संबंध में सभी सूचियों को भी अवैध और अमान्य करार दिया गया है। दरअसल 5 मार्च, 2010 से 11 मई, 2012 तक जिन 42 वर्गों को ओबीसी प्रमाणपत्र दिए गए, उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार के उन आदेशों को भी रद्द कर दिया है। ममता बनर्जी मई, 2011 में सत्ता में आई थीं, लिहाजा उनके कार्यकाल में भी दिए गए ओबीसी प्रमाणपत्र ‘असंवैधानिक’ करार दे दिए गए हैं। यकीनन यह ममता सरकार के लिए गंभीर धक्का है। अदालत के फैसले से करीब 5 लाख ओबीसी प्रमाणपत्र निरस्त हुए हैं। हालांकि जो पहले ही ऐसे आरक्षण का लाभ ले चुके हैं अथवा नौकरियों, सेवाओं में कार्यरत हैं या भर्तियों में चयन हो चुका है, वे अदालत के फैसले से अप्रभावी रहेंगे। मार्च, 2010 से पहले भी ओबीसी के 66 वर्गों में जो वर्गीकृत किए जा चुके हैं, उनसे जुड़े सरकार के कार्यकारी आदेश में भी अदालत ने हस्तक्षेप नहीं किया है, क्योंकि जनहित याचिकाओं में उनकी पहचान और वर्गीकरण को चुनौती नहीं दी गई है। अलबत्ता उच्च अदालत का जो फैसला सार्वजनिक हुआ है, उसमें मुसलमानों के ओबीसी दर्जे और आरक्षण का कोई उल्लेख नहीं है। प्रधानमंत्री मोदी चुनाव-प्रचार में यह मुद्दा शिद्दत से उठाते रहे हैं कि कांग्रेस और ‘इंडिया’ गठबंधन के घटक दल वोट बैंक और मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति करते आए हैं।
अदालत का यह फैसला उनके गाल पर करारा तमाचा है। गृहमंत्री अमित शाह की टिप्पणी है कि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी अपने वोट बैंक के लिए पिछड़े वर्गों के आरक्षण को लूटना चाहती हैं और उसे मुस्लिम समुदाय को देना चाहती हैं। ममता बनर्जी सरकार ने बिना कोई उचित सर्वे किए 118 मुस्लिम वर्गों को ओबीसी बनाया और फिर आरक्षण भी दिया। उसके लिए राष्ट्रीय पिछड़ा जाति आयोग के अधिनियम, 1993 के तहत पिछड़ा आयोग की कोई सलाह भी नहीं ली, जबकि राज्य सरकार के लिए ऐसा करना बाध्यता है।’’ बहरहाल यह अपनी-अपनी राजनीति है। अदालती फैसले में कहीं भी यह उल्लेख नहीं है कि बंगाल में मुसलमानों या घुसपैठियों को ओबीसी का दर्जा दिया गया और फिर आरक्षण सुनिश्चित कर ‘वोट बैंक’ तैयार कर लिया गया। उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति तपब्रत चक्रवर्ती और न्यायमूर्ति राजशेखर मंथा की खंडपीठ के सामने यह मामला आया था, जिसमें ओबीसी के 77 समूहों की पहचान और वर्गीकरण को चुनौती दी गई थी। खंडपीठ ने कहा कि उन समुदायों का डाटा नहीं दिया गया, जिनके आधार पर बंगाल सरकार मानती है कि राज्य सरकार की सेवाओं में उनका पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है। एक समुदाय को सिर्फ पिछड़ेपन के आधार पर ही ओबीसी घोषित नहीं किया जा सकता। वे वैज्ञानिक और पहचान योग्य डाटा के आधार पर ही ओबीसी में हैं। समुदायों के अपर्याप्त प्रतिनिधित्व, जनसंख्या तथा अन्य अनारक्षित जमातों को भी शामिल करते हुए आकलन करना जरूरी है। खंडपीठ का यह भी मानना था कि ओबीसी के ऐसे प्रमाणपत्र पिछड़ा वर्ग आयोग की कोई भी सलाह लिए बिना ही जारी किए गए। तृणमूल कांग्रेस के अभी तक के कार्यकाल में जितने भी ओबीसी प्रमाणपत्र दिए गए हैं, खंडपीठ ने सभी को अमान्य घोषित कर दिया है। ओबीसी के 37 समुदायों के वर्गीकरण के संदर्भ में खंडपीठ ने 2012 के अधिनियम की धारा 16 को निरस्त कर दिया है। दरअसल यह धारा राज्य सरकार को शक्तियां देती है कि वह किसी भी अनुसूची में संशोधन कर सके। नतीजतन 37 समुदाय भी 2012 के अधिनियम की अनुसूची एक से बाहर कर दिए गए हैं। बहरहाल उच्च न्यायालय का निर्णय राजनीतिक, जातीय, सामाजिक दृष्टि से बेहद गंभीर है। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने अदालत का यह फैसला मानने से इंकार कर दिया है। संभवत: वह सर्वोच्च अदालत में इसे चुनौती देंगी। बेशक वह दावा कर रही हैं कि ओबीसी आरक्षण जारी रहेगा। ओबीसी आरक्षण पर अदालत ने पाबंदी नहीं थोपी है। दरअसल सवाल कुछ समुदायों को ओबीसी दर्जा देने और फिर उन्हें आरक्षण मुहैया कराने पर हैं। चुनाव के दो चरण अभी शेष हैं और बंगाल की कुछ सीटों पर मतदान अभी होने हैं, लिहाजा यह मुद्दा उबलता रहेगा।