गठबंधन सहारे मोदी सरकार
नरेंद्र मोदी तीसरी बार प्रधानमंत्री बन सकते हैं। भाजपा न केवल लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी है, बल्कि 291 सांसदों वाले एनडीए का सदन में स्पष्ट बहुमत भी है। बहुमत का जादुई आंकड़ा 272 है। नियम और परंपरा के मुताबिक, राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू सबसे पहले भाजपा-एनडीए के नेता मोदी को, सरकार बनाने के लिए, आमंत्रित करेंगी। भाजपा और मोदी प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने को तैयार हैं। यह भाजपा मुख्यालय में कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री मोदी और पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने घोषित भी किया है, लेकिन इस बार मोदी एक ‘मिथक’ और निरंकुश भाव से काम करने वाले नेता साबित नहीं हो सकेंगे। चूंकि जनादेश कमजोर और गठबंधन का है, लिहाजा इस बार तेलुगूदेशम पार्टी (टीडीपी) और जनता दल-यू सरीखे सहयोगियों की सलाह और पूछ भी अनिवार्य होगी। टीडीपी प्रमुख चंद्रबाबू नायडू केंद्र में संयुक्त मोर्चा सरकारों और भाजपा की वाजपेयी सरकार के दौरान संयोजक और सहयोगी रह चुके हैं। वह बार-बार सरकारों को बाध्य करते थे और अपनी मांगें मनवाने की जिद करते थे। अंतत: उन्होंने एनडीए छोडऩे का फैसला किया, नतीजतन सरकार कमजोर हुई। बेशक उस दौर की तुलना में अब भाजपा सांसदों की संख्या काफी है, लेकिन स्पष्ट बहुमत से 30 सांसद कम हैं। लिहाजा सहयोगी दलों के समर्थन के बिना मोदी सरकार भी अस्थिर रहेगी।
यह जनादेश 2014 और 2019 से बिल्कुल भिन्न है। प्रधानमंत्री मोदी 10 साला कार्यकाल के दौरान लगभग निरंकुश होकर फैसले लेते रहे। प्रधानमंत्री दफ्तर भी उसी तर्ज पर काम करता रहा। अब यह गठबंधन की सरकार होगी, लिहाजा प्रधानमंत्री को समान नागरिक संहिता, एक देश एक चुनाव, कुछ आर्थिक सुधार, एनसीआर सरीखे मुद्दों पर फिलहाल विराम लगाना पड़ेगा अथवा टीडीपी और जद-यू की सहमति सरकार के लिए बाध्यकारी होगी। इस बार विपक्ष भी ताकतवर होगा। उनका नेता प्रतिपक्ष भी होगा, लिहाजा मुद्दों और विधेयकों पर विपक्ष की सहमति को भी टाला नहीं जा सकेगा। इस बार मोदी सरकार के लिए कोई भी संविधान संशोधन बिल पारित कराना आसान नहीं होगा, क्योंकि बहुमत नहीं है। कांग्रेस के 99 और सपा के 37 सांसद चुनकर लोकसभा में आ रहे हैं। ‘इंडिया’ की कुल ताकत पर्याप्त है। पीएमओ पर भी गठबंधन के सहयोगियों की ‘निगाह’ बराबर बनी रहेगी। फिलहाल नायडू और नीतीश कुमार ने प्रधानमंत्री मोदी से मुलाकात कर समर्थन और गठबंधन की गारंटी दी है, लेकिन उन दोनों के अतीत का इतिहास संदिग्ध रहा है। उससे उन्होंने सबक भी सीखा होगा! दोनों दल लोकसभा में स्पीकर का पद चाहते हैं। वाजपेयी सरकार के दौरान टीडीपी के बालयोगी स्पीकर होते थे। बहरहाल अभी तो मोदी सरकार को शपथ ग्रहण करनी है। इस बार 23.43 करोड़ मतदाताओं ने मोदी के नेतृत्व को वोट दिए हैं। यकीनन यह विश्व कीर्तिमान है, क्योंकि एक ही व्यक्ति के नाम इतने वोट नहीं डाले गए। फिर भी भाजपा को आत्ममंथन करना है कि जनादेश की दशा और दिशा एकदम कैसे बदल गई? वाराणसी सीट पर 2019 में प्रधानमंत्री मोदी 4 लाख से अधिक वोट से जीते थे, लेकिन इस बार यह फासला 1.5 लाख ही रह गया। ये वोट कम क्यों हुए? क्या दलित, ओबीसी, युवा मतदाता भाजपा से विमुख हुए हैं, लिहाजा समीकरण पलट गए हैं? ऐसे विश्लेषण सामने आए हैं कि ओबीसी, दलित, मुसलमान के अतिरिक्त वोट सपा और कांग्रेस के पक्ष में गए, नतीजतन उप्र के तमाम समीकरण पलट गए और भाजपा पराजित-सी हो गई। बसपा को मात्र 9 फीसदी वोट मिले और वह एक भी सीट जीत नहीं पाई, इससे भी सपा और कांग्रेस को फायदा हुआ। अयोध्या का राम मंदिर चुनावी मुद्दा नहीं बन सका। बंगाल में जनता का भरोसा अब भी ‘दीदी’ पर ही है। महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे की ‘शिवसेना’ और अजित पवार की एनसीपी भाजपा पर बोझ ही साबित हुईं, लिहाजा नुकसान भाजपा को ही हुआ।