विकल्पों का अभाव,पराली को लाभकारी बना पाते
ऋतुपर्ण दवे
उत्तर भारत के कई इलाकों में ठंड की दस्तक, धान की कटाई और दिवाली के दौरान होने वाले प्रदूषण के लिए अकेला भारत जिम्मेदार नहीं है। पाकिस्तान में जलती पराली से आने वाला धुआं भी कई राज्यों की फिजा को ज़हरीली बनाने में कम कसूरवार नहीं है। नासा वर्ल्डव्यू एनिमेशन, सेटेलाइट तस्वीरों, चंडीगढ़ पीजीआई और पंजाब यूनिवर्सिटी के एक शोध से यह साफ हो गया है कि भारतीय पंजाब के मुकाबले पाकिस्तानी पंजाब में पराली ज्यादा जलाई जाती है। वहीं, कुछ आंकड़े भी इस बात को पुख्ता करते हैं कि हरियाणा में 24 प्रतिशत और पंजाब में 40 प्रतिशत कम पराली इस 1 सितंबर से अक्तूबर के तीसरे हफ्ते तक जली। यह भी सही है कि धान कटाई का यह पीक सीजन नहीं था। दिवाली के थोड़े पहले और अब दिवाली बाद अलग नजारा दिखने लगा है।
इधर, सुप्रीम कोर्ट ने भी हाल ही में एक बार फिर, दिल्ली में बढ़ते वायु प्रदूषण पर केंद्र सरकार को ढिलाई पर कड़ी फटकार लगाई और पंजाब और हरियाणा सरकारों को भी चेताया। इस बाबत सख्त कानून न लागू करने पर चिंता भी जताई। सफाई, बचाव, तर्क-कुतर्क पर अभी और पहले भी सुप्रीम कोर्ट कई बार जमकर नाराजगी दिखा चुका है। नियंत्रण खातिर जिम्मेदार संस्थाएं कब कटघरे में नहीं थीं? सुप्रीम कोर्ट की पीड़ा इसी से समझ आती है कि पर्यावरण संरक्षण अधिनियम को दंतहीन तक कह दिया। कोर्ट में प्रस्तुत जवाब पर सवाल खड़े होने पर गंभीरता जताते हुए बात अवमानना की चेतावनी तक पहुंचना कम नहीं है।
सच है कि पराली का जलना, प्रदूषण का बढ़ना आरोप-प्रत्यारोप और राजनीतिक विषय बन चुका है। तमाम बयानबाजियां यही दिखाती हैं। कैसी कोशिशें हैं कि हर साल न धुआं थमता है और न ही पराली का जलना। सरहद पार के धुएं की बात छोड़ दें और देश में जल रही पराली ही देखें तो समझ आता है कि कोशिशों के दौड़ते कागजों के अलावा धरातल पर कुछ नहीं दिखता। केवल किसानों को ही दोष देना नाकाफी है। उनकी पीड़ा भी समझनी होगी। केंद्र या राज्य सरकारें दावा कुछ भी करें, लेकिन किसानों की भी व्यावहारिक समस्याएं हैं। संसाधनों की कमी का सामना छोटे किसान ही करते हैं, जो छोटे-छोटे भू-भाग के बावजूद विशाल रकबे में फैले हैं। न तो उनके पास इतनी जमीन है कि ऋण लेकर मशीनें खरीदें और न ही सामर्थ्य। ऐसे में पराली निदान के लिए महंगी मशीनों में निवेश या कर्ज लेकर चुकाने की हैसियत भी आड़े आती है।
खेती मौसम पर निर्भर है। महज एक-दो दिन बिगड़ा मौसम महीनों की मेहनत पर पानी फेर देता है। इसी चलते भी किसान तुरंत पराली जलाने को मजबूरी बताते हैं। छोटे-बड़े सभी किसानों को अगली फसल की बुवाई की ताबड़तोड़ तैयारी और मौसम का डर सताता है। किसान मानते हैं कि दूसरी फसल के लिए बहुत कम वक्त मिलता है। ऐसे में छोटे किसानों के सामने सरकारी मदद की खानापूर्ति और तमाम बाधा, असमंजस के चलते भी नुकसान जानकर भी पराली जलाने का अपराध करना मजबूरी बन जाता है।
अब रोजाना दिल्ली और सटे राज्यों में हवा की फिजा बदलेगी। खुलकर सांस लेना और मुश्किल होगा। हवा की बिगड़ती गुणवत्ता इस साल के नए रिकॉर्ड छुएगी। प्रदूषण अभी इतनी बदतर स्थिति में जा पहुंचा है कि सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ ने मॉर्निंग वॉक पर जाना बंद कर दिया। ऐसे में आमजन की सुध पर सरकारी तंत्र की कोशिशों पर ही सबका ध्यान जाएगा। अदालत भी मानती है कि केंद्र और राज्यों को याद दिलाने का यही वक्त है कि भारतीय संविधान के भाग-3 में मौजूद अनुच्छेद 21 के तहत लोगों को प्रदूषण मुक्त वातावरण में रहने का मौलिक अधिकार है।
दिल्ली का वायु प्रदूषण दशकों पुराना मुद्दा है। वर्ष 1985 में ही इसके खिलाफ आवाज उठी थी, जब कीर्ति नगर जैसे घने रिहायशी इलाके में एक फर्टिलाइजर प्लांट की ज़हरीली हवा लोगों को बीमार करने लगी। तब एक वकील एम.सी. मेहता ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगाई। ट्रायल के दौरान ही प्लांट से ओलियम गैस रिसी और तीस हजारी कोर्ट के एक वकील की जान चली गई। कइयों की हालत बिगड़ी थी। इसके बाद कई कंपनियों पर प्रतिबंध लगा। आबादी वाले क्षेत्र में क्लोरीन, सुपर क्लोरीन, ओलियम, फॉस्फेट जैसे जहरीले उत्पाद बनाने पर रोक लगी। साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने भी प्रदूषण मुक्त वातावरण में रहने को मौलिक अधिकार बनाया।
अब तक कागजों पर योजना बनाने, बैठकें करने और अंत में आरोप-प्रत्यारोप के खेल से ज्यादा क्या हासिल हुआ? न पराली के दूसरे उपयोग किसानों को समझा पाए और न क्लाउड सीडिंग से कृत्रिम बारिश कराकर प्रदूषण से फौरी राहत पर वो कर सके जो कुछ देशों ने कर दिखाया। सिवाय आपसी दांव-पेच के, न पराली संग्रहण कर उपयोगी उत्पादों में भूमिका बनी, न ही जलाने से रोकने के प्रभावी कानून बनाकर आर्थिक लाभ की तरफ रुख कर पाए। मुद्दा गंभीर जरूर है, लेकिन निदान असंभव भी नहीं। काश! पराली से राख के बजाय रुपये कमाने की पहल होती।