हार से सबक नहीं लेने वाली कांग्रेस?, अब नहीं जागी तो बढ़ेंगी मुश्किलें
नई दिल्ली: झारखंड में इंडिया गठबंधन की जीत और महाराष्ट्र में करारी हार के बाद जहां विपक्षी खेमे में इन चुनाव के नतीजों को लेकर समीक्षा होगी। वहीं लोकसभा चुनाव में बेहतर प्रदर्शन करने वाली कांग्रेस के लिए शनिवार को सामने आए नतीजे हरियाणा की हार के बाद लगातार दूसरे बड़े झटके की तरह हैं। भले ही कांग्रेस लोकसभा चुनाव के बाद दोनों ही विधानसभा चुनावों जम्मू कश्मीर और झारखंड में इंडिया गठबंधन की जीत को अपने सीने पर एक और तमगा मान ले, लेकिन सच्चाई यही है कि इन दोनों ही राज्यों में इंडिया ब्लॉक की जीत में कांग्रेस की भूमिका सहायक की रही है। वहीं मुख्य भूमिका में क्षेत्रीय दल रहे। दूसरी ओर हरियाणा और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में जहां कांग्रेस का स्टेक काफी ऊंचा था, वहां पार्टी का प्रदर्शन काफी निराशाजनक रहा।
शनिवार को सामने आए चुनाव नतीजे कांग्रेस के लिए मिले-जुले रहे। जहां झारखंड में कांग्रेस अपना पुराना प्रदर्शन दोहराते हुए पिछली बार की तरह 16 सीटों पर जीत दर्ज करने कामयाब हो गई। वहीं महाराष्ट्र में पार्टी का प्रदर्शन बेइंतहा खराब रहा। महाराष्ट्र में कांग्रेस 10 फीसदी सीटें भी नहीं निकाल पाई, जहां पिछले असेंबली चुनावों में कांग्रेस 147 सीटों पर लड़कर 44 सीटें जीती थीं। वहीं दूसरी ओर कांग्रेस इस बार 102 सीटों पर लड़कर बमुश्किल 15 सीटें निकालती दिखी। महाराष्ट्र में उसके तमाम बड़े नेता पूर्व सीएम पृथ्वीराज चव्हाण और पूर्व अध्यक्ष बाला साहेब थोराट चुनाव हार गए।
दूसरी ओर नांदेड़ और वायनाड लोकसभा उपचुनावों में कांग्रेस ने वायनाड सीट निकाल ली, जो निकलनी ही थी। वहीं नांदेड़ सीट भी पार्टी ने जीत ली है। इस तरह लोकसभा में उसके नंबर 99 ही बने हुए हैं। लोकसभा चुनाव में बेहतर प्रदर्शन से मद और अहंकार में डूबी कांग्रेस ने कई ऐसी सीटों पर निराशाजनक प्रदर्शन किया, जहां पिछले एक साल में उसने बेहतर प्रदर्शन किया था। राजस्थान असेंबली उपचुनाव में महज एक साल पहले जीती सीटों में से पार्टी तीन सीटें खो बैठी। इसी तरह से पंजाब में भी जीती हुई तीन सीटें गंवा बैठी। हालांकि पंजाब, असम और मध्य प्रदेश में कांग्रेस विरोधी से एक-एक सीटें छीनती दिखी। वहीं उसे कर्नाटक की तीन और केरल की एक सीट पर भी जीत मिली।
आपसी गुटबाजी से जूझती पार्टी
महाराष्ट्र में नतीजे आते ही पार्टी के भीतर आरोप प्रत्यारोप और खींचतान शुरू हो गई। पूर्व सीएम पृथ्वीराज चव्हाण ने राज्य में अपनी हार के लिए अपने शीर्ष नेतृत्व पर ठीकरा फोड़ा। उनका कहना था कि हमारी तो लीडरशिप ही खराब है। दूसरी ओर महाराष्ट्र में लोकसभा चुनाव के दौरान निराशाजनक प्रदर्शन के बाद जहां बीजेपी और उनके सहयोगियों ने जी-जीन लगा दिया, वहीं इतने अहम राज्य के बावजूद कांग्रेस के तमाम बड़े नेता और लीडरशिप प्रियंका गांधी की जीत सुनिश्चित करने के लिए वायनाड में डेरा डाले नजर आए। यही वजह थी कि बड़े नेता यहां तक कि राहुल गांधी भी जमीन पर इस बार वैसा कनेक्ट नहीं बना पाए, जैसा उन्होंने लोकसभा या भारत जोड़ो यात्रा के दौरान बनाया था।
राहुल गांधी का असर इसी से नजर आता है कि उन्होंने महाराष्ट्र चुनाव के दौरान नंदुरबार, धामनगांव रेलवे, नागपुर ईस्ट, गोंदिया, चिमूर, नांदेड नॉर्थ और बांद्रा ईस्ट सीट पर चुनावी रैलियां की थीं। इन चुनावी रैलियों में भीड़ भी काफी जुटी थी, लेकिन ये भीड़ वोट में तब्दील नहीं हुई। राहुल गांधी ने सात विधानसभाओं के लिए रैलियां की, लेकिन एक सीट पर एमवीए को जीत मिली। वहीं दूसरी ओर कांग्रेस की एक बड़ी कमी उसके भीतर आपसी गुटबाजी, वक्त पर फैसले न लेना और हार से सबक न लेना भी है, जिसका असर पार्टी के मनोबल, कार्यकर्ताओं और प्रदर्शन पर पड़ता है। आपसी गुटबाजी का ही नतीजा था कि हरियाणा में पार्टी जीती हुई बाजी हार गई।
महाराष्ट्र में कई सीटों पर बागियों ने उतरकर चुनौतियों को बढ़ाया। वहीं केंद्रीय नेतृत्व में आपसी समन्वय न होने का असर पार्टी के फैसलों पर पड़ता दिखा। इसका खामियाजा पार्टी को भुगतना पड़ा। फिर चाहे इंडिया गठबंधन के बीच सीटों का बंटवारा हो या उम्मीदवारों का चयन, हर तरफ आपसी खींचतान और गुटबाजी हावी दिखी। हरियाणा की हार के बाद पार्टी ने रिव्यू कमिटी बनाई थी, उसकी रिपोर्ट का क्या हुआ, यह अभी तक साफ नहीं। फैसलों को टालते रहने की नीति के चलते पार्टी पॉलिसी पैरालिसिस से भी जूझती दिखाई दे रही।
संगठन में बदलाव?
कांग्रेस में बड़े पैमाने पर बदलाव होना है, लेकिन अलग-अलग वजहों से ये बड़े बदलाव नहीं हो पा रहे। चर्चा है कि इन चुनावों के बाद संगठन महासचिव से लेकर मीडिया तक में बदलाव होने हैं। हालांकि बदलाव की बात काफी समय से हो रही है, लेकिन उस पर अमल को लगातार टाला जा रहा। आने वाले समय में पार्टी के भीतर प्रियंका गांधी की भूमिका में बदलाव होना है। वह महासचिव हैं, लेकिन उनके पास कोई प्रभार नहीं है। चर्चा है कि उन्हें कोई अहम जिम्मेदारी मिल सकती है। कई राज्यों में प्रभारी से लेकर अध्यक्ष पद पर भी बदलाव होना है।