‘ग्वादर पोर्ट’ दूसरा ‘हंबनटोटा’ बन जाएगा…
इतिहास की शुरूआत से ही ग्वादर एक मछली पकडऩे वाला गांव रहा है। आधुनिक बलूचिस्तान के दक्षिणी तट पर स्थित होने के कारण इसके निवासियों को स्थानीय रूप से पकड़ी गई मछलियों पर निर्भर रहना पड़ता था और पीने के पानी के लिए मौसमी वर्षा पर निर्भर रहना पड़ता था। 325 ईसा पूर्व में मकरान में अपनी वापसी के दौरान सिकंदर महान ने जिन जनजातियों का सामना किया था, उन्हें उनके इतिहासकार एरियन ने इचथियोफैगी या मछली खाने वाले के रूप में कुछ ऐसे वर्णित किया था ,‘एक बालों वाली जाति, जिसके लंबे नाखून थे जिनसे वे अपनी मछलियां बांटते थे और वे आग से कठोर किए गए लकड़ी के भालों का इस्तेमाल हथियारों के रूप में करते थे’।
सिकंदर अपनी सेना के एक समूह को जमीन पर ले गया, जबकि उसका एडमिरल नेरचस बाकी लोगों को तट के किनारे नौकायन करने वाले जहाजों में ले लिया। स्काऊट्स द्वारा गुमराह किए गए सिकंदर ने अपना रास्ता खो दिया। अपने सैनिकों के साथ, उन्हें गर्मियों की गर्मी और पानी की कमी का सामना करना पड़ा। एक विवरण के अनुसार, जब सिकंदर को कीमती पानी से भरा एक कटोरा दिया गया, तो उसने इसे,अपने आदमियों के सामने रेत में डाल दिया, बजाय इसके कि जब वे पी न सकें तो पी लें’।
2,000 साल बाद भी मकरान में बहुत बदलाव नहीं आया है। 1896 में इसका सर्वेक्षण करते हुए, अंग्रेज भूगोलवेत्ता कर्नल टी.एच. होल्डिच ने सोचा कि ‘किस तरह के पागलपन ने उन्हें ऐसा मार्ग चुनने के लिए प्रेरित किया होगा’। होल्डिच ने ‘मछली खाने वालों’ के वंशजों को पहचाना, और टिप्पणी की कि वे न केवल मछली खाते थे बल्कि ‘मछली, कुत्तों, बिल्लियों, ऊंटों और मवेशियों के भोजन को भी खाने में शामिल करते थे’।
हालांकि इसके इतिहास ने अपरिवर्तित निरंतरता के अलावा कुछ भी नहीं दिया। मकरान के भूगोल ने 20वीं सदी की महाशक्तियों के लिए एक महत्व प्राप्त कर लिया। उनके लिए, अरब सागर एक पैडङ्क्षलग पूल बन गया जिसमें वे अपनी नावें तैरा सकते थे और युद्ध के खेल खेल सकते थे। ग्वादर और ओरमारा के समुद्र तटों ने एक नया महत्व प्राप्त कर लिया। मार्च 1972 में, राष्ट्रपति के रूप में जुल्फिकार अली भुट्टो ने अमरीकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन को ‘कराची के पास अरब सागर तट पर बंदरगाह और ट्रैकिंग स्टेशन की सुविधा’ की पेशकश करते हुए एक प्रस्ताव भेजा। विदेश मंत्री डब्ल्यू. रोजर्स ने निक्सन को सलाह दी कि अमरीका ‘ऐसी सुविधाओं की आवश्यकता की कल्पना नहीं करता है, लेकिन बंदरगाह विस्तार में किसी भी विशिष्ट प्रस्ताव के लिए खुला है’।
भुट्टो अपनी बात पर अड़े रहे। सितंबर 1973 में एक साल बाद निक्सन के साथ अपनी बैठक से पहले, हेनरी किसिंजर ने निक्सन को बताया कि बलूचिस्तान बंदरगाह की मांग करने में भुट्टो का मुख्य उद्देश्य संभवत: अधिक वाणिज्य और रोजगार लाने में मदद करना और उस पिछड़े, कम आबादी वाले, लंबे समय से अस्थिर, विपक्ष के वर्चस्व वाले प्रांत में अधिक समर्थन हासिल करना है। अपनी बैठक के दौरान, निक्सन ने भुट्टो से स्वीकार किया कि आपने जो (ग्वादर) बंदरगाह (पोर्ट) प्रस्ताव रखा, उसने मुझे आकॢषत किया। हम आज इस पर कुछ भी निश्चित नहीं कह सकते डा. किसिंजर इस पर गौर करेंगे। अब तक, हमने डिएगो गाॢसया पर उस क्षेत्र में सब कुछ लगा दिया है। बंदरगाह तक पहुंच होना भी उपयोगी हो सकता है।
किसिंजर ने 2 सवाल जोड़े। पहला निर्माण है। दूसरा उपयोग का सवाल है। यह दूसरा सवाल तभी मुद्दा बनता है जब बंदरगाह अस्तित्व में आती है। तब भी, औपचारिक और अनौपचारिक उपयोग के बीच अंतर होता है। भुट्टो ने उन्हें आश्वस्त किया कि मैं नैतिक रूप से आश्वस्त हूं कि पाकिस्तानी हितों के संदर्भ में अमरीकी उपस्थिति उचित होगी। मैं यह नहीं कहता कि यह पाकिस्तान में कोई मुद्दा नहीं होगा, लेकिन मुझे विश्वास है कि मैं इसे संभाल सकता हूं।
ग्वादर के विकास ने चीनी प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई के दिमाग में गूंज पैदा की। कुछ महीने बाद बीजिंग में एक बैठक के दौरान, चाऊ एन लाई ने किसिंजर से कहा,‘‘हम पाकिस्तान की सहायता करने और पाकिस्तान में एक नौसैनिक बंदरगाह बनाने के आपके बहुत पक्षधर होंगे।’’ 50 साल बाद, स्थिति बदल गई है। चीन आगे बढ़ा है और ग्वादर को अपना बना लिया है, जिससे डिएगो गाॢसया में अमरीका की पकड़ बनी हुई है। उम्मीदें यह हैं कि ग्वादर शेनझेन (चीन का पहला विशेष आर्थिक क्षेत्र और अब एक आॢथक महाशक्ति) के साथ चीन की सफलता को दोहराएगा, यह बात झूठ साबित हुई है।
बलूच शिकायत करते हैं कि नौकरी के वादे पूरे नहीं हुए,औद्योगिक वादे पूरे नहीं हुए तथा पाकिस्तानियों के लिए व्यापार के अवसर पूरे नहीं हुए। वादा किए गए 9 विशेष आॢथक क्षेत्रों में से एक भी आज तक पूरी तरह से काम नहीं कर रहा है। ग्वादर में स्थानीय लोगों को बहुत कम लाभ हुआ है। इससे भी बदतर, उन्हें अपनी मछलियों के लिए लूटपाट करने वाले चीनी ट्रॉलरों से प्रतिस्पर्धा करनी पड़ रही है। क्या ग्वादर विफल हो सकता है और एक और हंबनटोटा बन सकता है। श्रीलंका में चीन द्वारा वित्तपोषित बंदरगाह भारी कर्ज के बोझ तले डूब रही है? माओ जेडोंग ने एक बार कहा था,‘‘सफलता के लिए आपको अपने पैरों पर खड़ा होना पड़ता है।’’
उधार की बैसाखियों पर सफल होने की कोशिश करने के बारे में वे चुप थे। उन्होंने दूसरों से सीखने के बारे में भी सलाह दी और कहा,‘‘एक है सब कुछ प्रत्यारोपित करने का हठधर्मी रवैया, चाहे वह हमारी परिस्थितियों के अनुकूल हो या न हो। दूसरा रवैया है अपने दिमाग का इस्तेमाल करना और उन चीजों को सीखना जो हमारी परिस्थितियों के अनुकूल हों, यानी जो भी अनुभव हमारे लिए उपयोगी हो उसे आत्मसात करना।’’ यही रवैया उनके लोगों ने अपनाया। हमारी सभी सरकारों ने माओ के पहले विकल्प को प्राथमिकता दी है। वे हमेशा चीनी ड्रैगन की पीठ पर सवार होकर अधिक सहज महसूस करते हैं। -एफ.एस. ऐजाजुद्दीन