संपत्ति कब्जाने, सरकारी माफियागिरी पर अब लगेगी लगाम
हमारे देश में एक ओर प्राकृतिक रूप से प्राप्त स्रोतों का खजाना है और दूसरी ओर नागरिकों द्वारा अपनी बुद्धि, सामथ्र्य, कार्य कुशलता और परिश्रम से अर्जित विशाल कारोबार, व्यवसाय और एम्पायर है। बहुत से लोभी, स्वार्थी, दबंग तथा देशद्रोही जल, जंगल, जमीन जैसे संसाधनों और नदी के मीठे और समुद्र के खारे पानी तक को कब्जा लेते हैं। कानून का डर नहीं, आकंठ भ्रष्टाचार में डूबे नेताओं और सरकार का तो कतई नहीं। सांठगांठ, मिलीभगत पर कोई रोकटोक नहीं।
नकली समाजवाद को संविधान का अंग बना लेने के बाद से तो उन लोगों की पौ बारह हो गई, जो देश की दौलत अपने वोटबैंक में बांटने की जुगत में लगे रहते हैं। उदाहरण यह है कि पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह देश की कुदरती अमीरी पर मुसलमानों का पहला हक होने की बात करते हैं। कांग्रेस के मालिक राहुल गांधी कैसी भी संपत्तियां हों, निजी, सरकारी, सार्वजनिक या प्राकृतिक, सभी को जातियों की संख्या के आधार पर बांटने की बात गरीब से करने लगते हैं। कुछ उनके बहकावे में आ भी जाते हैं और जब उनकी वाणी को सत्य मानकर अपना हिस्सा लेने पहुंचते हैं तो उनकी हालत नींद से जागने जैसी होती है जिसमें उन्हें अपने अमीर हो जाने का सपना दिखाई देने लगा था। उनके मित्र सैम पित्रोदा तो अमरीकी कानून भारत में लागू करने की सलाह देते हैं, जहां मरने के बाद आधी दौलत सरकार की हो सकती है।
दुरुपयोग की व्याख्या : जिस कानून की अब माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने उचित व्याख्या की है, उसके पहले हुए दुरुपयोग पर नजर डालें तो सामने ऐसे दृश्य आने लग जाते हैं जिन्हें आप आंख फाड़कर देखने के अतिरिक्त कुछ नहीं कर सकते। मिसाल के तौर पर उत्तर प्रदेश में अपने दल के महापुरुषों और यहां तक कि परिवार के सदस्यों की सबसे महंगे पत्थरों की मूॢतयां लगाने के लिए बेशकीमती जमीन हथिया कर स्मारक बनाने का काम है। उसके बाद आप दिल्ली में राजघाट के इलाके का दौरा कर लीजिए। पूज्य बापू की समाधि तो समझ में आती है लेकिन बाकी किसी की भी मृत्यु के बाद लंबे-चौड़े क्षेत्रफल पर बने स्मृति स्थलों को देखने की जिज्ञासा शायद ही किसी आम आदमी में होती होगी।
क्या यह बात मन में आना उचित नहीं है कि इन जगहों पर बुलडोजर चला दिया जाए? यहां न जाने कितने स्कूल, कॉलेज, अस्पताल बन सकते थे, लोगों का जीवन सुविधाजनक बनाने के लिए बहुत से परिसर बन सकते थे, जहां रोजगार मिलने और व्यवसाय करने की सुविधाएं हो सकती थीं। देश की आन-बान की रक्षा करने वाले सैनिकों के लिए उनका स्मृति स्थल अभी कुछ ही वर्ष पहले बना है। उसमें भी उन्हें कोई स्थान नहीं मिला जिन्होंने विदेशों में भारत का डंका बजाया, जैसे कि देश का गौरव आई.पी.के.एफ., जिसके रणबांकुरों ने श्रीलंका में गजब की वीरता दिखाई।
छलावे का ख़ुलासा : सार्वजनिक संपत्ति को किस तरह अपना बनाया जा सकता है, उसमें सबसे पहले राष्ट्रीयकरण आता है। अच्छे-खासे मुनाफे में चल रहे बैंकों का सरकारीकरण ही देख लीजिए। लगभग सभी घाटे में चल रहे हैं। उसके बाद सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम हैं, जो पहले निजी लोगों की मिल्कियत थे और उन्हें सरकारी संस्थान बना दिया गया। बहुत से लोग इसके खिलाफ अदालतों में भी गए लेकिन ‘समरथ को नहीं दोष गुसाईं’ की कहावत का असर देखकर चुप हो गए। गिनती के पी.एस.यू. हैं, जो देश की शान कहे जा सकते हैं, बाकी सब तो भारत माता की छाती पर बोझ समान हैं।
दूसरा तरीका है सरकार द्वारा अपनी बनाई किसी विकास नीति पर अमल करने के लिए ग्रामवासियों, किसानों या जिसकी जमीन बीच में आए, उसका अधिग्रहण कर लिया जाए और अपनी मनमर्जी से मुआवजा दिया जाए। उस जमीन का कोई इस्तेमाल न होने से वह बंजर, पथरीली और हरियाली विहीन हो जाती है। इसके बाद आता है राजा की तरह राजदंड का उपयोग कर कानूनन कब्जा कर लेना, जिसकी न सुनवाई हो सकती है और न अपील। कुछ संपत्तियां हैं, जिन्हें वाजिब दाम और आपसी समझौते के आधार पर सरकारें खरीद सकती हैं। देखा जाए तो यही एक तरीका न्यायसंगत है जिसमें क्रेता और विक्रेता दोनों की सहमति होती है।
सच का सामना : देश में दो ही तरह से धन-दौलत का संग्रह हो सकता है। एक सरकारी स्वामित्व में और दूसरा निजी हाथों में। उम्मीद है कि नई व्यवस्था से इन दोनों में संतुलन बनाया जा सकेगा। कुछ मु_ी भर उद्योगपतियों के हाथों में इसका भंडारण होने पर लगाम लग सकेगी। इसी तरह राजनीतिज्ञों और उनके सत्ताधारी होने पर वे कोई ऐसा फैसला नहीं कर पाएंगे, जिससे राष्ट्रीय हितों को क्षति पहुंचे। जब कोई सत्ताधारी या विपक्षी देश की संपत्ति अपनी इच्छानुसार बांटने की बात करे तो लोग इस कानून का हवाला देकर उसके विरोध में खड़े हो जाएं। दूसरे की कमाई प्रतिष्ठा, नेकनामी और औद्योगिक साम्राज्य को जनता की भलाई के नाम पर कब्जाने की मानसिकता पनप न पाए।-पूरन चंद सरीन