राजनीति

मुफ्त की रेवड़ियां देश की तरक्की में बाधक

पिछले दिनों कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने कर्नाटक में अपने ही दल की सरकार की यह कहकर आलोचना की कि जो चुनावी वादे पूरे नहीं किए जा सकते, उन्हें न करें। वजह यह है कि सरकार बन जाने पर उन्हें पूरा करने में कठिनाई आती है। उनका आशय मुफ्त की उन योजनाओं से था, जिन्हें पूरा करने में सरकारी खजाने को खाली होने का डर होता है। हिमाचल प्रदेश के बारे में अभी खबर आई ही थी कि वहां सरकारी खजाने का हाल यह है कि सरकारी कर्मचारियों को वेतन देने तक के लिए संसाधन जुटाने में दिक्कत आ रही है। हिमाचल प्रदेश में भी कांग्रेस की सरकार ही है। लेकिन पक्ष-विपक्ष के नेताओं को चुनाव जीतने से मतलब होता है। सोच लिया जाता है कि बाद की बाद में देखेंगे। इसलिए खड़गे के बयान पर ध्यान दिया जाना चाहिए।

अरसे से देख रहे हैं कि सभी दल, जनता उन्हें वोट दे, वे किसी न किसी तरह चुनाव जीत जाएं, इसके लिए मुफ्त में सब कुछ देने का वादा करते हैं। वे भूल जाते हैं कि अपने ही किए गए वादों के जाल में फंस सकते हैं। फंसते हैं, तभी तो खड़गे ने ऐसा बयान दिया।

एक बार तमिलनाडु से आने वाली घरेलू सहायिका ने बताया था कि महीने भर का राशन- अनाज, चावल, दालें, तेल, मसाले आदि सब चीजें मुफ्त में हर एक के घर पहुंचा दी जाती हैं। महिलाओं के लिए बस यात्रा मुफ्त है। चुनावी घोषणापत्र में अनेक दल टीवी, मोबाइल, साइकिल, स्कूटी, लैपटाॅप, साड़ियां आदि देने का वादा करते हैं। पक्के घर, बिजली, पानी आदि भी देने के वादे किए जाते हैं। मुफ्त की चिकित्सा सुविधा भी। इन दिनों तो युवाओं, स्त्रियों, बुजुर्गों के खाते में सीधे हजारों रुपए भेजने की बातें की जाती हैं। ये पैसे कहां से आएंगे, इसकी चिंता किसी दल को नहीं होती। सारे पैसे मुफ्त में देने में ही खर्च हो जाएंगे, तो बाकी के कामों का क्या होगा।

कोई भी यह नहीं कहता कि लोग परिश्रम करें। न ही इसकी योजनाएं बनाई जाती हैं कि लोगों को अधिक से अधिक संख्या में काम पर कैसे लगाया जाएगा। वैसे भी अपने यहां कहावत है कि अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम। दास मलूका कह गए सबके दाता राम। यानी कि लोग भाग्य और अब सरकारों के भरोसे रहें। किसी भी देश को बर्बाद करना हो, तो लोगों को श्रम से मुंह मोड़ना और भाग्य के भरोसे रहना सिखा दें। यही अपने यहां हो रहा है। मुफ्त की रेवड़ियां बांटें और कुछ रास्ता न बचे तो वर्ल्ड बैंक के सामने कटोरा फैलाकर कर्ज ले लिया जाए। वेनेजुएला जैसे फलते-फूलते देश की अर्थव्यवस्था इन रेवड़ियों के कारण किस तरह से बैठ गई, यह हम सबने देखा। और सोवियत संघ के पतन से भी हमने कुछ नहीं सीखा।

सोचें कि मुफ्त देने के मुकाबले यदि इन पैसों को देश के विकास में लगाया जाए, तो इससे लोगों को काम भी मिलेगा और लोगों के परिश्रम की आदत भी नहीं छूटेगी।

यहां दो उदाहरण देना उचित होगा।

कुछ साल पहले बिजली का बिल ठीक कराने के लिए बिजलीघर गई थी। वहां पता चला कि फोटोकापी वाला इस काम को आसानी से करा देता है। कुछ पैसे देने होंगे। बार-बार आने और फिर भी काम न हो पाने के मुकाबले, कुछ पैसे देना उचित लगा। वहां पहुंची, तो फोटोकापियर एक आदमी से बात कर रहा था। वह आदमी कह रहा था कि पास ही की एक कालोनी में उसका पच्चीस गज का चार मंजिल का घर है। चारों मंजिल उसी के पास हैं। वह चाहता है कि हर मंजिल पर एक अलग मीटर लगा दिया जाए, जिससे कि किसी भी मंजिल का बिल दो सौ यूनिट से ज्यादा न आए और उसे बिजली का एक पैसा न देना पड़े। यानी कि खर्च तो आठ सौ यूनिट होंगी, मगर अलग-अलग मीटरों के कारण उसका बिजली का बिल शून्य होगा। कारण, दिल्ली की सरकार ने दो सौ यूनिट बिजली मुफ्त में दे रखी है। यह तो एक उदाहरण है, लम्बे-चौड़े दिल्ली शहर में ऐसा कितने लोग करते होंगे, इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है।

दरअसल, एक बार अगर मुफ्त की कोई योजना शुरू कर दी जाए तो फिर किसी भी दल की हिम्मत नहीं होती कि वह उसे खत्म कर दे। क्योंकि खत्म करते ही विरोधी उसके पीछे पड़ जाते हैं और अपना नुकसान होते देख, लोग चुनाव हरा देते हैं। इसके अलावा यह भी होता है कि आज आपने किसी को एक रुपया मुफ्त दिया है, तो वह कहता है कि एक रुपया तो पहले से ही मिलता है, वही दे रहे हो तो नया क्या दे रहे हो। वोट तो तब दें, जब ये बताओ कि इस एक रुपए से बढ़ाकर कितना दोगे। जितना मुफ्त मिलता जाता है, लालच बढ़ता जाता है।

कुछ साल पहले पास ही के उत्तर प्रदेश के शहर में साहित्य उत्सव में गई थी। वहां स्थानीय लोग बहुत थे। उनमें से बहुत से गांवों से आए थे। उनका कहना था कि अब गांवों में युवा काम करने को तैयार नहीं हैं क्योंकि वहां लोगों को बहुत कुछ मुफ्त मिलता है, तो कोई काम क्यों करे। यह भी बताया कि बहुत से युवा इकट्ठे होकर, दिन भर जुआ खेलते रहते हैं। चूंकि खाली हैं, तो लड़ाई-झगड़ा और अपराधों का ग्राफ भी बढ़ा है। यह सिर्फ एक स्थान की बात नहीं है। भारत भर से ऐसी खबरें आ रही हैं कि अब काम करने वाले आसानी से नहीं मिलते।

खटाखट-फटाफट के चक्कर में लोग इस बात से आश्वस्त हो जाते हैं कि उन्हें अब खाने-पीने और पैसे की दिक्कत नहीं होगी, तो बिना मतलब काम क्यों किया जाए। परिश्रम न होने के कारण गांवों में, कम उम्र में ही वे बीमारियां बढ़ रही हैं, जिन्हें बड़ी उम्र के रोग कहा जाता था।

तमाम बड़े अर्थशास्त्री मुफ्त की योजनाओं को किसी भी देश की अर्थव्यवस्था के लिए बहुत खतरनाक मानते हैं, मगर दलों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। नकली समाजवाद का रोग अपने देश में इस कदर फैला है कि सब कुछ फ्री में चाहिए। जबकि एक मशहूर वाक्य है– लंच इज नाट फ्री। यानी कि पूंजीवाद में कुछ भी मुफ्त नहीं होता। एक तरफ जीडीपी कैसे बढ़े, इसके लिए सरकारें रोती रहती हैं, मगर सब कुछ मुफ्त-मुफ्त के वादे करके लोगों का परिश्रम से मुंह मोड़ती हैं। चरैवेति-चरैवेति का मतलब मात्र चलना नहीं है। बल्कि जीवन के लिए जो भी जरूरी सुविधाएं हैं, उनके लिए कठिन परिश्रम करना है।

लोकतंत्र की यह सबसे बड़ी मुसीबत भी है कि नारा दिया जाता है कि जनता मालिक है, लेकिन मालिक बनते ही लोग किसी के लिए काम करने के मुकाबले, मुफ्त की योजनाओं की बाट देखने लगते हैं। सारे राजनीतिक दल इसे खूब हवा भी देते हैं। इन्हें बदला जाए और इस देश के युवाओं को अधिक से अधिक रोजगार देकर उन्हें परिश्रम की तरफ मोड़ा जाए, तभी देश का सही विकास हो सकता है।

Show More

Daily Live Chhattisgarh

Daily Live CG यह एक हिंदी वेब न्यूज़ पोर्टल है जिसमें ब्रेकिंग न्यूज़ के अलावा राजनीति, प्रशासन, ट्रेंडिंग न्यूज, बॉलीवुड, बिजनेस, रोजगार तथा टेक्नोलॉजी से संबंधित खबरें पोस्ट की जाती है।

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button