खेती मजबूत, अर्थव्यवस्था सुदृढ़
कृषि भारत की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है. विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं द्वारा चलाये जा रहे विभिन्न कार्यक्रमों एवं प्रयासों से कृषि को राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में गरिमापूर्ण दर्जा मिला है. आंकड़े बताते हैं कि कृषि क्षेत्र में लगभग 64 प्रतिशत श्रमिकों को रोजगार मिला हुआ है. वर्ष 1950-51 में सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी में कृषि का हिस्सा 59.2 प्रतिशत था, जो 1990-91 में घटकर 36.4 फीसदी और 1982-83 में 34.9 प्रतिशत पर आ गया. यह प्रतिशत लगातार घट रहा है, पर आज भी सकल निर्यात में कृषि अपनी हिस्सेदारी बनाये हुए है.
एक स्वतंत्र एजेंसी के आंकड़े बताते हैं कि देश में राष्ट्रीय आय का लगभग 28 फीसदी कृषि से प्राप्त होता है. लगभग 70 प्रतिशत आबादी अपनी आजीविका के लिए प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कृषि पर निर्भर है. गैर कृषि-क्षेत्रों में बड़ी मात्रा में उपभोक्ता वस्तुओं एवं बहुतायत उद्योगों को कच्चा माल इसी क्षेत्र से प्राप्त हो रहा है. ऐसे में इस क्षेत्र को नजरअंदाज करना देश की अर्थव्यवस्था के साथ खिलवाड़ करने जैसा है.
रोजगार और अर्थव्यवस्था की दृष्टि से कृषि क्षेत्र में अपार संभावनाएं हैं. सबसे बड़ा कृषि योग्य भू-भाग भारत के पास है. देश की जलवायु ऐसी है कि वर्ष में तीन फसलें आसानी से ली जा सकती हैं. आज दुनिया के देश मोटे अनाज की ओर बढ़ रहे हैं, जबकि भारत उसके उत्पादन के लिए उपयुक्त देश है. कोरोना के समय देश के सारे उद्योग बंद हो गये थे और शहरों में काम करने वाले श्रमिक बड़ी संख्या में बेरोजगार हो गये थे. तब खेती ने ही उन श्रमिकों को आश्रय दिया था. इससे यह तो साबित हो गया कि देश में खेती को यदि दुरुस्त किया जाये, तो यह हमारे लिए न केवल रोजगार का अवसर प्रदान करेगा, अपितु हमारी अर्थव्यवस्था को भी बेहतर तरीके से मजबूत बनायेगा.
एक अनुमान के अनुसार, देश में लगभग दो हजार लाख हेक्टेयर भूमि खेती के योग्य है. इसमें से केवल 1,200 से लेकर 1,500 लाख हेक्टेयर भूमि का ही हम उपयोग कर पा रहे हैं. उसमें से भी हमारे पास लगभग 40 प्रतिशत भूमि ही सिंचित है. बाकी 60 प्रतिशत भूमि पर भगवान भरोसे खेती होती है. पड़ोसी देश चीन की बात की जाये, तो वहां जब साम्यवादी सरकार आयी, तो सबसे पहले उसने खेती की आधारभूत संरचना विकसित की. अमेरिका के दूरद्रष्ट्रा राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने भी खेती को विकास का आधार बनाया था.
दुनिया की तेजी से बढ़ रही अर्थव्यवस्थाओं में से एक वियतनाम ने भी अपनी खेती को विकास का आधार बनाया है. अपने यहां खेती की ओर देखा तो गया है, लेकिन आज भी आधारभूत संरचना की दृष्टि से खेती का क्षेत्र पिछड़ा हुआ है. आजादी के बाद सरकारों ने इस दिशा में सोचा जरूर, लेकिन जिस गहराई के साथ सोचना चाहिए, वैसा यहां नहीं हुआ है. विगत कुछ वर्षों से ग्रामीण अर्थव्यवस्था, खेती और ग्रामीण आधारभूत संरचना पर ध्यान दिया जा रहा है, पर अब भी बहुत कुछ करने की जरूरत है.
हालांकि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने खेती और खेती पर आधारित उद्योग को बढ़ावा देने की रणनीति बनायी है. इसका असर भी देखने को मिल रहा है. जैसे कि ग्रामीण क्षेत्रों से हो रहे पलायन में कमी आयी है. ग्रामीण अर्थव्यवस्था सुधरी है, लेकिन अब भी शहरों की तुलना में गांव कमजोर हैं. इसलिए सरकार को सबसे पहले खेती के लिए सिंचाई की बड़ी आधारभूत संरचना खड़ी करनी होगी. सिंचाई का सबसे बड़ा आधार वर्षा जल है. झारखंड जैसे पठारी राज्यों का 90 प्रतिशत जल बह कर समुद्र में चला जाता है. इससे हमारी उपजाऊ मिट्टी भी बह जाती है. इसका बड़ा नुकसान हो रहा है. हम केवल 20 से 25 प्रतिशत वर्षा जल का ही उपयोग कर पाते हैं. जबकि इसका बूंद-बूंद संरक्षित करने की जरूरत है. हमारी नदियां मर रही हैं. उन्हें जीवित करना होगा. भूमिगत जल का जो स्तर गिर रहा है, उसे भी संभालने की आवश्यकता है. खेती की आधारभूत संरचना तैयार करने के लिए कृषि क्षेत्र में बड़े निवेश की जरूरत है.
खेती पर आधारित उद्योग के माध्यम से भी ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत किया जा सकता है. दाल मिल, तेल मिल, आटा मिल, चावल मिल आदि खाद्य प्रसंस्करण के कारखाने पंचायत स्तर पर होने चाहिए. इसके लिए सरकार ग्राम पंचायतों के साथ मिलकर एक सहकारिता आंदोलन चला सकती है. इस प्रकार के छोटे कारखानों में अपार संभावनाएं हैं. पशुपालन, मत्स्य पालन आदि के माध्यम से रोजगार के नये आयाम खड़े किये जा सकते हैं. संचार, कनेक्टिविटी और यातायात के साधनों को तेज कर इस दिशा में गति लायी जा सकती है.
साथ ही, इस क्षेत्र में व्यापारिक दबाव देखने को मिलता है. बिचौलियों के कारण उत्पादक को सही मूल्य नहीं मिल पा रहा. इसे भी ठीक करने की जरूरत है. कुल मिलाकर, खेती-किसानी जो भारत का पारंपरिक पेशा है, उसे यदि हम ठीक कर लें और उसमें आधुनिक तौर-तरीके शामिल कर लें, तो देश में अभी रोजगार की जो मारामारी देखने को मिल रही है, उसमें कमी आयेगी. पलायन रुकेगा, ग्रामीण अर्थव्यवस्था मजबूत होगी और इसका देश के विकास पर कहीं न कहीं सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा.