संपादकीय

शीतकालीन सत्र में बहस हो…

संसद के मौजूदा शीतकालीन सत्र के 12वें दिन मंगलवार को भी दोनों सदन हंगामों के बीच पूरे दिन के लिए स्थगित कर दिए गए। सोमवार को भी ऐसा ही हुआ था। पिछले सप्ताह भी संसद में कमोबेश ऐसा ही दृश्य रहा।

संसद चलाने पर सहमति : यह स्थिति तब है, जब पिछले सप्ताह सत्तारूढ़ पक्ष और विपक्ष दोनों में सहमति बनी थी कि सदन में कामकाज को बाधित नहीं होने दिया जाए। यह महसूस किया गया कि सदन ठप होने से कई जरूरी मसलों पर चर्चा नहीं हो पाती।

कांग्रेस का रुख : देखा जाए तो यह पॉजिटिव डिवेलपमेंट था, जिसके बाद उम्मीद बंधी कि संसद का यह सत्र शायद स्वस्थ बहस का गवाह बने। खास बात यह रही कि इस दबाव के मद्देनजर कांग्रेस नेतृत्व की रणनीति में भी बदलाव दिखा। अदाणी ग्रुप से जुड़े आरोपों पर जोर देने के लिए सदन में हंगामा करने के बजाय कांग्रेस के लोग सदन के अंदर और बाहर अन्य उपायों से इस मसले की ओर ध्यान खींचने लगे। काले रंग के पोस्टरयुक्त जैकेट पहनने से लेकर मुखौटे लगाने तक अलग-अलग तरीके आजमाए गए।

हंगामा जारी रहा : अफसोस की बात यह है कि इन सबसे संसद के अंदर माहौल में कोई खास बदलाव नहीं आया। विपक्ष के आरोप तो अपनी जगह बने ही रहे, सत्ता पक्ष इसके जवाब में कांग्रेस नेतृत्व की कथित भारत विरोधी जॉर्ज सोरोस के संगठन से मिलीभगत के आरोपों को उसी आक्रामकता से उठाता दिखा। नतीजा यह कि संसद में कामकाज सामान्य रूप से चलने की जो संभावना बन रही थी, वह धूमिल हो गई।

सरकार, विपक्ष में तालमेल: लेकिन एक वक्त ऐसा भी था, जब हालात अलग थे। 2003 में जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे तो उन्होंने एक कूटनीतिक मामले में विपक्ष की मदद ली थी। वाजपेयी ने वामपंथी नेताओं को चाय पर बुलाया और उन्हें इराक में भारतीय फौज भेजने का विरोध के लिए मनाया। अमेरिका इसके लिए सरकार पर दबाव डाल रहा था। वाजपेयी इराक में भारतीय फौज नहीं भेजना चाहते थे, लेकिन साथ ही यह संदेश भी देना चाहते थे कि चूंकि देश में इस कदम का भारी विरोध हो रहा है, इसलिए वह मांग नहीं मान सकते।

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