दानव नहीं नशेबाज़, उपचार व पुनर्वास को प्राथमिकता दें
बीते सोमवार सुप्रीम कोर्ट ने नशीले पदार्थों के खिलाफ लड़ाई में संवेदनशील व्यवहार व मानवीय दृष्टिकोण अपनाने पर बल दिया। इस मुहिम से जुड़े महत्वपूर्ण बिंदुओं पर प्रकाश डालते हुए अदालत ने दोटूक शब्दों में कहा कि नशे की लत के शिकारों का दानवीकरण करने के बजाय उनके उपचार व पुनर्वास को प्राथमिकता बनाया जाए। यह हकीकत है कि हाल ही के वर्षों में विभिन्न घातक नशीले पदार्थों का प्रयोग तेजी से बढ़ा है, लेकिन ऐसे लोगों के प्रति समाज में दुराग्रहपूर्ण नकारात्मकता होती है। समाज को ऐसे लोगों की पहचान संवेदनशील ढंग से करके, उन्हें इस लत से बचाने के लिये मनोवैज्ञानिक प्रयास करने चाहिए। निस्संदेह, कठोर व्यवहार करने से यह समस्या और जटिल हो जाती है। चिंता की बात यह है कि देश के तमाम इलाकों में नशे की दलदल के विस्तार की खबरें आ रही हैं। लेकिन उस अनुपात में सरकारों की तरफ से इस चुनौती के मुकाबले युद्धस्तर पर पहल होती नजर नहीं आ रही है। वहीं समाज की उदासीनता भी चिंता बढ़ाने वाली है। निस्संदेह, हमें नशे करने वालों को खतरनाक व्यक्ति के रूप में देखने के बजाय, समाज की मुख्यधारा में लाने का प्रयास करना चाहिए। समाज के कठोर व तिरस्कारपूर्ण व्यवहार के चलते नशे के शिकार लोग और गहरी दलदल में उतरते चले जाते हैं। यदि हम इन युवाओं में नशे की दलदल से निकलने इच्छाशक्ति पैदा करें तो नशे के खिलाफ हमारी जंग कामयाब हो सकती है। लेकिन वस्तुस्थिति यह है कि उनके प्रति नकारात्मक धारणा व उपेक्षा से उपजे मनोवैज्ञानिक द्वंद्व से व्यक्ति गहरे नशे की ओर उन्मुख हो जाता है। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि जब हमने वर्ष 2047 तक नशामुक्त भारत बनाने का लक्ष्य रखा है तो उसे पाने के लिये कारगर रणनीति अपनाने की भी जरूरत है। विशेषकर सामाजिक स्तर पर व्यापक व्यावहारिक पहल, जो जमीनी स्तर पर बड़े बदलाव का वाहक बन सके।
यह तार्किक है कि सुप्रीम कोर्ट की पीठ को कहना पड़ा कि नशे की लत के शिकार लोगों को अपराधी की तरह देखना गलत है। निश्चित रूप से विभिन्न हितधारकों मसलन केंद्र व राज्य सरकारों, नागरिक समाजों, परिवारों व शैक्षणिक संस्थानों को संकट से निपटने के लिये खुलकर की जाने वाली चर्चाओं पर ध्यान देना चाहिए। इसके विपरीत यदि हम उन्हें अपराधियों की तरह देखते रहे तो उन्हें हम पतन के गर्त की ओर उन्मुख कर देंगे। हम स्वीकार करें कि देश के युवाओं के भविष्य पर संकट मंडरा रहा है। उन्हें करुणा और संवेदनशीलता की दृष्टि से देखे जाने की जरूरत है ताकि उन्हें अपनी स्थिति पर आत्ममंथन का मौका मिल सके। दरअसल, नशे के शिकार ये लोग इस नशे की नदी की छोटी मछलियां हैं। बड़ी मछलियां तो नशीली दवाओं के व्यापारी और तस्कर हैं। जो एक फलते-फूलते अंतर्राष्ट्रीय नेटवर्क का हिस्सा हैं। जो कानून व पुलिस की गिरफ्त में आने से बचने के लिये धनबल से तमाम तरीके इजाद कर लेते हैं। इसे पंजाब के हालात के रूप में भी देखा जाना चाहिए। दरअसल, यह सीमा पार से चलाये जा रहे नशे के चक्रव्यूह में फंस रहा है। साल की शुरुआत में अत्यधिक नशे की डोज से मरने की घटनाओं से पंजाब हिल गया था। जरूरी है कि नशे के खिलाफ लड़ाई में युवाओं की माताओं व बहनों को शामिल किया जाए। परिवार का भावनात्मक संबल कई युवाओं को नशे की अंधी गलियों से बाहर निकालने में सहायक होगा। लेकिन नशे के खिलाफ अभियान चलाने के बड़े-बड़े दावे करने वाले तंत्र को बरनाला में नशे के खिलाफ बुलंद आवाज उठाने वाले एक सरपंच की हत्या पर आत्ममंथन करना चाहिए। सोचना होगा कि यदि समाज में नशे के खिलाफ उठने वाली आवाजों को संरक्षण न दिया गया तो लोग नशे के खिलाफ आवाज उठाने से डरने लगेंगे। निश्चित रूप से नशे के खिलाफ जन आंदोलन ही स्थिति को बदलने में सहायक होगा। साथ ही नशीले पदार्थों के सेवन के पीछे छिपे बहुआयामी कारकों पर भी मंथन की जरूरत है ताकि पता चले कि क्यों युवा भावनात्मक पलायन के कारण नशा करते हैं।