संपादकीय

औद्योगिक नीति को लेकर प्रतिस्पर्धी क्षमता में सुधार के संकेत

सरकार ने हाल के समय में इलेक्ट्रॉनिक्स उत्पादन और निर्यात, खासकर मोबाइल हैंडसेट को लेकर कहा है कि यह औद्योगिक नीति को लेकर उसके प्रयासों की कामयाबी का संकेत है। निश्चित तौर पर कुछ सफलताएं मिली हैं जो नजर भी आ रही हैं। उदाहरण के लिए 2021-22 में देश में इलेक्ट्रॉनिक्स उत्पादन मूल्य के संदर्भ […]

सरकार ने हाल के समय में इलेक्ट्रॉनिक्स उत्पादन और निर्यात, खासकर मोबाइल हैंडसेट को लेकर कहा है कि यह औद्योगिक नीति को लेकर उसके प्रयासों की कामयाबी का संकेत है। निश्चित तौर पर कुछ सफलताएं मिली हैं जो नजर भी आ रही हैं। उदाहरण के लिए 2021-22 में देश में इलेक्ट्रॉनिक्स उत्पादन मूल्य के संदर्भ में निर्यात केवल 15 फीसदी बढ़ा। अगले वित्त वर्ष में यह बढ़कर 25 फीसदी हुआ और 2023-24 में यह बढ़कर 30 फीसदी का स्तर पार कर सकता है।

सरकार का लक्ष्य 2025-26 तक 52 से 58 अरब डॉलर का निर्यात करने का है और वर्तमान हालात में यह हासिल होता नजर आता है। कुल 126 अरब डॉलर का उत्पादन लक्ष्य भी उचित प्रतीत होता है। परंतु कारोबारी संगठन इंडियन सेल्युलर ऐंड इलेक्ट्रॉनिक्स एसोसिएशन (आईसीईए) ने इस आशावाद को लेकर सतर्क किया है।

अपने हालिया अध्ययनों में उसने अनुमान जताया है कि मोबाइल फोन की घरेलू मांग में कमी आएगी और वह 21 फीसदी सालाना से घटकर 4 फीसदी रह जाएगी। इसके अलावा उसका यह भी कहना है कि निर्यात भी आधिकारिक लक्ष्य का लगभग आधा ही रह जाएगा।

यह किसी भी लिहाज से कमजोर प्रदर्शन नहीं है। लेकिन जब इसे आपूर्ति श्रृंखला के वैश्विक पुनर्संतुलन के बाद मिले अवसरों के विरुद्ध आंका जाता है तो निराशाजनक माना जा सकता है। इतना ही नहीं सरकार के लक्ष्य से चूकने की वजहें उसकी औद्योगिक नीति के डिजाइन में देखी जा सकती हैं। इसमें अधूरे विचारों का इस्तेमाल किया गया जो आमतौर पर भारतीय संदर्भ में नीति निर्माण में लागू करने योग्य नहीं होते।

इसके लिए तथा ऐसे अन्य क्षेत्रों मसलन बिजली से चलने वाले वाहन आदि में आयात घटकों तथा अंतिम निर्मित वस्तुओं के लिए शुल्क बढ़ाने का विचार है। ऐसा करके उच्च घरेलू मांग वृद्धि का इस्तेमाल बड़ी विदेशी कंपनियों को निवेश के लिए आकर्षित करने के लिए किया जाए और उत्पादन संबद्ध प्रोत्साहन यानी पीएलआई का इस्तेमाल भी एक आकर्षण के रूप में किया जाए।

नीतियों का यह मिश्रण अफसरशाहों के लिए आकर्षक है क्योंकि श्रृंखला के हर स्तर पर अनिवार्य तौर पर निर्णय प्रक्रिया में नियंत्रण और विवेकाधिकार में इजाफा होता है। परंतु समग्रता में देखा जाए तो आर्थिक दृष्टि से यह बहुत सुसंगत नहीं लगता। उदाहरण के लिए आईसीईए का अध्ययन बताता है कि मोबाइल फोन हैंड सेट उत्पादन में लगने वाले घटकों और अन्य असेंबली पर उच्च आयात शुल्क स्थानीय स्तर पर निर्मित उपकरणों की लागत में पांच से सात प्रतिशत तक इजाफा कर सकती है। ऐसी स्थिति में मोबाइल हैंड सेट निर्माण को पीएलआई योजना से हासिल लाभ स्वत: समाप्त हो जाता है।

आईसीईए का अनुमान है कि यह करीब चार से छह फीसदी के बीच है। अगर पीएलआई योजना आयात शुल्क के कारण अलाभकारी हो रही है और घरेलू मांग में भी कमी है तो यह समझना मुश्किल है कि भविष्य में इस क्षेत्र में वृद्धि और निवेश कहां से आएंगे?

सरकार के लिए बेहतर होगा कि वह इन बातों पर विचार करे क्योंकि ये पूरी तरह अप्रत्याशित भी नहीं हैं। उसे इनके आधार पर जरूरी बदलाव करने चाहिए ताकि भारत वैश्विक मूल्य श्रृंखला में प्रवेश के लिए तैयार हो सके।

अर्थव्यवस्थाओं की बात करें तो पश्चिम के देश भी शुल्क बढ़ा सकते हैं लेकिन उनकी शुल्क दरें भारत की तुलना में बहुत कम हैं और उनकी भविष्य की वृद्धि पूरी तरह नए निर्यात बाजारों पर आधारित नहीं है।

अर्थव्यवस्थाओं की बात करें तो पश्चिम के देश भी शुल्क बढ़ा सकते हैं लेकिन उनकी शुल्क दरें भारत की तुलना में बहुत कम हैं और उनकी भविष्य की वृद्धि पूरी तरह नए निर्यात बाजारों पर आधारित नहीं है।

भारत जैसे विकासशील देश के साथ ऐसा मामला नहीं है। इतना ही नहीं 21वीं सदी की मूल्य श्रृंखला भी ऐसी है कि उच्च शुल्क दर से अनिश्चितता और लागत बढ़ती हैं। एक स्थिर तथा कम शुल्क दर वाली व्यवस्था तथा कारोबारों के अनुकूल माहौल भारत को उत्पादन सब्सिडी की तुलना में अधिक लाभ दिलाएगा।

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