संपादकीय

…बढ़ते चीन के दोस्ती के हाथ

रूस के कजान शहर में ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के दौरान हुई भेंट के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तथा चीन के राष्टï्रपति शी जिन पिंग ने दोनों देशों के बीच विभिन्न द्विपक्षीय वार्ता तंत्र को बहाल करने के निर्देश दिए थे। इसके बाद 11वीं आसियान रक्षा मंत्रियों की बैठक के दौरान 20 नवम्बर को रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह की लाओस के ‘वियनतियाने’ में चीन के रक्षा मंत्री ‘डोंग जुन’ के साथ उच्च स्तरीय बैठक  हुई। 

यह पूर्वी लद्दाख में पिछले 2 टकराव बिंदुओं से भारतीय तथा चीनी  सैनिकों की वापसी पूरी होने के बाद दोनों रक्षा मंत्रियों की पहली बैठक थी। इसमें रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने कहा कि दोनों देश पड़ोसी हैं और पड़ोसी रहेंगे, लिहाजा हमें टकराव से अधिक सहयोग पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है।इसके अगले ही दिन विदेश मंत्री एस. जयशंकर की ब्राजील के रियो डी जिनेरियो में जी-20 शिखर सम्मेलन के दौरान चीन के विदेश मंत्री ‘वांग यी’ से मुलाकात हुई जिसमें दोनों नेताओं मेें पिछले 5 वर्षों से बंद मानसरोवर यात्रा दोबारा शुरू करने तथा भारत और चीन के बीच सीधी विमान सेवाएं शुरू करने जैसे मुद्दोंं पर बातचीत हुई। 

इस बीच अगले वर्ष रूस के राष्ट्रपति पुतिन भी भारत की यात्रा पर आने वाले हैं। अमरीका में चाहे किसी भी पार्टी का राष्ट्रपति आए, वह चीन को रोकने की कोशिश करता ही है और अब दूसरी बार अमरीका का राष्ट्रपति चुने जाने के बाद डोनाल्ड ट्रम्प ने तो पहले ही चीन से आयात किए जाने वाले सामान पर भारत से भी अधिक टैरिफ बढ़ाने का संकेत दे दिया है। इस घटनाक्रम से ऐसा लग रहा है कि चूंकि डोनाल्ड ट्रम्प चीन के विरुद्ध टैरिफ बढ़ा देंगे, लिहाजा चीन को केवल कच्चा माल खरीदने वालों की नहीं बल्कि सामान खरीदने की क्षमता वाले लोगों से युक्त एक बाजार और एक नए साथी की जरूरत पड़ेगी और ऐसे में भारत उसके लिए उपयुक्त है। भारत का मध्य वर्ग विश्व में सबसे बड़ा होने के कारण चीन कोशिश कर रहा है कि भारत, चीन और रूस का एक गठबंधन बन जाए ताकि ये तीनों देश मिलकर जनसंख्या तथा आर्थिकता के लिहाज से दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएं, जिस प्रकार ब्रिक्स अर्थव्यवस्था में जी-7 से बड़ा हो गया है। 

निस्संदेह चीन के साथ जाने में हमारा लाभ भी है क्योंकि अमरीका का राष्टï्रपति बनकर आने वाले हर नेता की भारत के प्रति नीतियां ऊपर से तो ठीक रहती हैं परंतु बीच में वे कुछ न कुछ गड़बड़ कर ही देते हैं। इसलिए हमारे लिए तटस्थ रहना और अमरीका के साथ-साथ चीन और रूस से मित्रता रखना लाभदायक है। हम तो हमेशा ही चीन के साथ दोस्ती करने के मामले में आगे रहे हैं। जब चीन ने कम्युनिज्म को अपनाया उस समय उसे खाना देने और मान्यता प्रदान करने वाला भारत ही था। फिर 1950 में पंचशील की संधि और 1962 में चीन के साथ युद्ध विराम हुआ। उसके बाद भी चीन के साथ भारत ने कितने ही अनुबंध तथा मैत्री समझौते किए हैं और हमेशा चीन के शासकों का समर्र्थन किया है, परंतु चीन हमेशा ही भारत के साथ किए समझौते तोड़ता आया है। या तो चीन ने हमारी सीमाओं पर हमले किए या हम पर आर्थिक दबाव डालने की कोशिश की है। 

इस समय भी हमारे मुख्य व्यापारिक भागीदार अमरीका, रूस और चीन ही हैं और व्यापार का पलड़ा भी चीन के पक्ष में है, परंतु इस चरण पर शायद चीन की मजबूरी यह है कि चीन के शासकों को इस बात का कोई अनुमान नहीं है कि ट्रम्प अभी कितनी दूर तक जाएगा। इसलिए वे भारत की ओर हल्के-हल्के दोस्ती के हाथ बढ़ा रहे हैं। कुल मिलाकर हमें सावधान तो रहना ही होगा क्योंकि हम चीन पर भरोसा नहीं कर सकते। चीन और पाीिकस्तान का कुछ न कुछ तो चलता रहेगा। आखिरकार एक उग्र विचारधारा के पड़ोसी और शत्रु की बजाय मित्रवत पड़ोसी अधिक लाभदायक है।

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